Thursday, May 21, 2009

इमामत कुरान और हदीस की रोशनी मैं

इमामत

इमामत
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की शहादत के बाद इस्लामी समाज में पैग़म्बर (स.) के जानशीन (उत्तराधिकारी) और खिलाफ़त का मसला सब से ज़्यादा महत्वपूर्ण था। एक गिरोह ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के कुछ असहाब के कहने पर हज़रत अबू बकर को पैग़म्बर (स.) का ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) चुन लिया, लेकिन दूसरा गिरोह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के हुक्म के अनुसार हज़रत अली (अ. स.) की खिलाफ़त के ईमान पर अटल रहा। एक लम्बा समय बीतने के बाद पहला गिरोह अहले सुन्नत व अल- जमाअत के नाम से और दूसरा गिरोह शिया के नाम से मशहूर हुआ।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि शिया व सुन्नी के बीच जो अन्तर पाया जाता है वह सिर्फ पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन के आधार पर नहीं है, बल्कि इमाम के मअना व मफ़हूम के बारे में भी दोनों मज़हबो (सम्प्रदायों) के दृष्टिकोणों में बहुत ज़्यादा फर्क पाया जाता है। अतः इसी आधार पर दोनों मज़हब एक दूसरे से अलग हो गये हैं।
हम यहाँ पर इस बात की वज़ाहत (व्याख़्या) के लिए (इमाम और इमामत) के मअना की तहक़ीक़ करते हैं ताकि दोनों के नज़रिये स्पष्ट हो जायें।
शाब्दिक आधार पर इमामत का अर्थ व मअना नेतृत्व व रहबरी हैं और एक निश्चित मार्ग में किसी गिरोह की सर परस्ती करने वाले ज़िम्मेदार को इमाम कहा जाता है। मगर दीन की इस्तलाह (धार्मिक व्याख़यानो व लेखों में प्रयोग होने वाले विशेष शब्दों को इस्तलाह कहा जाता है) में इमामत के विभिन्न अर्थ व मअना उल्लेख हुए हैं।
सुन्नी मुसलमानों के नज़रिये के अनुसार इमामत दुनिया की बादशाही का नाम है और इस के द्वारा इस्लामी समाज का नेतृत्व किया जाता है। अतः जिस तरह हर समाज को एक रहबर व उच्च नेतृत्व की ज़रुरत होती है और उसमें रहने वाले लोग अपने लिए एक रहबर को चुनते हैं, इसी तरह इस्लामी समाज के लिए भी ज़रुरी है कि वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के बाद अपने लिए एक रहबर का चुनाव करे, और चूँकि इस्लाम धर्म में इस चुनाव के लिए कोई खास तरीका निश्चित नहीं किया गया है इस लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (उत्तराधिकारी) के चुनाव के लिए विभिन्न तरीकों को अपनाया जा सकता है। जैसे- जिसे पब्लिक या बुज़ुर्गों का अधिक समर्थन मिल जाये या जिसके लिए पहला जानशीन वसीयत करदे या जो बगावत कर के या फौजी ताक़त का प्रयोग कर के हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर ले।
लेकिन शिया मुसलमानों का मत है कि हज़रत मुहम्मद (स.) अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर थे और उनके बाद पैग़म्बरी ख़त्म हो गई। उनके बाद पैग़म्बरी की जगह इमामत ने लेली अर्थात अल्लाह ने इंसानों की हिदायत के लिए पैग़म्बर के स्थान पर इमाम भेजने शुरू कर दिये। इमाम मखलूक के बीच अल्लाह की हुज्जत और उसके फ़ैज़ का वास्ता होता है। अतः शिया इस बात पर यक़ीन व ईमान रखते हैं कि इमाम को सिर्फ अल्लाह निश्चित व नियुक्त करता है और उसे पैग़म्बर, वही का पैग़ाम लाने वाले के द्वारा पहचनवाता है। यह नज़रिया इमामत की अज़मत और बलन्दी (महानता) के साथ शिया फ़िक्र में पाया जाता है। इस नज़रिये के अनुसार इमाम का कार्य क्षेत्र बहुत व्यापक है वह इस्लामी समाज का सरपरस्त होता है और अल्लाह के अहकाम को बयान करता है, क़ुरआन का मुफ़स्सिर होता है और इंसानों को राहे सआदत (कल्याण व निजात) की हिदायत करता हैं। बल्कि इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शिया संस्कृति में “इमाम” पब्लिक की दीन और दुनिया की मुश्किलों को हल करने वाले व्यक्तित्व का नाम है। इसके विपरीत अहले सुन्नत का मानना यह है कि खलीफ़ा या इमाम की ज़िम्मेदारी सिर्फ दुनिया से संबंधित कामों में हुकूमत करना है।
इमाम की ज़रुरत
इन नज़रीयों के उल्लेख के बाद अब इस सवाल का जवाब देना उचित है कि कुरआने करीम और सुन्नते पैग़म्बर (स.) के बावजूद इमाम की क्या ज़रुरत है ? इमाम की ज़रुरत के लिए बहुत से दलीलें पेश की गई हैं लेकिन हम यहाँ पर उन में से सिर्फ़ एक को अपने सादे शब्दों में पेश कर रहे हैं।
जिस दलील के द्वारा नबियों (अ. स.) की ज़रुरत साबित होती है, वही दलील इमाम की ज़रुरत को भी साबित करती है। एक बात तो यह कि क्यों कि इस्लाम आखरी दीन है और हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.) अल्लाह की तरफ़ से आने वाले आखरी पैग़म्बर हैं, अतः ज़रूरी है कि इस्लाम में इतनी व्यापकता हो कि वह क़ियामत तक की इंसानों की सारी ज़रुरतों को पूरा कर सके। दूसरी बात यह कि कुरआने करीम में इस्लाम के उसूल (आधारभूत सिद्धान्त), अहकाम (आदेश) और इलाही तालीमों (शिक्षाओं) को आम व आंशिक रूप में उल्लेख किया गया हैं और उनकी तफ़्सीर व व्याख़्या पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़िम्मे है।<1>
यह बात स्पष्ट है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने मुसलमानों के हादी और रहबर के रूप में ज़माने की ज़रुरतों के अनुसार और अपने ज़माने के इस्लामी समाज की योग्यता के अनुरूप अल्लाह की आयतों को बयान किया अतः पैग़म्बर इस्लाम (स.) के लिए आवश्यक है कि अपने बाद वाले ज़माने के लिए कुछ ऐसे लायक जानशीनों को छोड़ें जो ख़ुदा वन्दे आलम के ला महदूद (अपार व असीमित) इल्म के दरिया से संबंधित हो ताकि जिन चीज़ों को पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने बयान नहीं किया, वह उनको बयान करें और हर ज़माने में इस्लामी समाज की ज़रूरतों को पूरा करते रहें ।
इसी लिए इमाम (अ. स.) पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की छोड़ी हुई मिरास के मुहाफिज़ (रक्षा करने वाले), कुरआने करीम के सच्चे मुफ़स्सिर और उस के सही मअना बयान करने वाले हैं, ताकि अल्लाह का दीन स्वार्थी दुशमनों के द्वारा तहरीफ (परिवर्तन) का शिकार न हो और यह पाक व पाक़ीज़ा दीन क़ियामत तक बाकी रहे।
इसके अलावा, इमाम इंसाने कामिल (पूर्ण रूप से विकसित इन्सान) के रूप में इन्सानियत के तमाम पहलुओं में नमूनए अमल (आदर्श) है। क्यों कि इन्सानियत को एक ऐसे नमूने की सख्त ज़रुरत है जिसकी मदद और हिदायत के द्वारा इंसानी सामर्थ्य के अनुसार तरबियत (प्रशिक्षण) पा सके और इन आसमानी प्रशिक्षकों के आधीन रह कर भटकाव व अपने नफ्स की इच्छाओं के जाल और बाहरी शैतानों से सुरक्षित रह सके।
उपरोक्त विवरण से ये बात स्पष्ट हो जाती है कि जनता को इमाम की बहुत ज़रुरत है और इमाम की ज़िम्मेदारियाँ निमन लिखित हैं।
१-समाज का नेतृत्व व समाजी मुश्किलों का समाधान करना अर्थात हुकूमत की की स्थापना।
२-पैग़म्बरे इस्लाम के दीन को तहरीफ़ (परिवर्तन) से बचाना और कुरआन के सही मअनी बयान करना।
३-लोगों के दिलों का तज़किया करना अर्थात उन्हें पवित्र बनाना और उन की हिदायत करना।<2>
इमाम की विशेषताएं
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का जानशीन अर्थात इमाम, दीन को ज़िन्दा रखता और इंसानी समाज की ज़रुरतों को पूरा करता है। इमाम के व्यक्तित्व में इमामत के महान पद के कारण कुछ विशेषताएं पाई जाती हैं जिन में से कुछ मुख़्य विशेषताएं निम्न लिखित हैं।
१-इमाम, मुत्तक़ी, परहेज़गार और मासूम होता है, जिसकी वजह से उससे एक छोटा गुनाह भी नहीं हो सकता।
२-इमाम के इल्म का आधार पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का इल्म होता है और वह अल्लाह के इल्म से संपर्क में रहता है, अतः वह भौतिक व आध्यात्मिक, दीन और दुनिया की तमाम मुश्किलों के हल का ज़िम्मेदार होता है।
३-इमाम में तमाम फ़ज़ायल (सदगुण) मौजूद होते हैं और वह उच्च अख़लाक़ का मालिक होता है।
४-दीन के आधार पर इंसानी समाज को सही रास्ते पर चलाने की योग्यता रखता है।
उरोक्त वर्णित विशेषताओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि इमाम का चुनाव जनता के बस से बाहर है। अतः सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम ही अपने असीम इल्म के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (इमाम) का चुनाव कर सकता है। अतः इमाम की विशेषताओं में सब से बड़ी व मुख्य विशेषता उसका ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से मन्सूब नियुक्त) होना है।
प्रियः पाठको इमाम की इन विशेषताओं के महत्व को ध्यान में रखते हुए हम यहाँ पर इन में से हर विशेषता के बारे में संक्षेप में लिख रहे
हैं।
इमाम का इल्म
इमाम, जिस पर लोगों की हिदायत और रहबरी की ज़िम्मेदारी होती है, उसके लिए ज़रुरी है कि दीन के तमाम पहलुओं को पहचानता हो और उसके क़ानूनों से पूर्ण रूप से परिचित हो। कुरआने करीम की तफ़्सीर को जानता हो और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की सुन्नत को भी पूरी तरह से जानता हो ताकि अल्लाह को पहचनवाने वाली चीज़ों और दीन की शिक्षाओं को भली भाँती स्पष्ट रूप से बयान करे और जनता के विभिन्न सवालों के जवाब दे तथा उनका बेहतरीन तरीके से मार्गदर्शन करे। स्पष्ट है कि ऐसी ही इल्म रखने वाले इंसान पर लोगों को विश्वास हो सकता है, और ऐसा इल्म सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम के असीम इल्म से संमपर्क रहने की सूरत में ही मुम्किन है। इसी वजह से शिया इस बात पर यक़ीन रखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (इमाम) का इल्म ख़ुदा के असीम इल्म से संबंधित होता है।
हज़रत इमाम अली (अ. स.) सच्चे इमाम की निशानियों के बारे में फरमाते हैं।
“इमाम, अल्लाह के द्वारा हलाल व हराम किये गये कामों, विभिन्न आदेशों, अल्लाह के अम्र व नही और लोगों की ज़रुरतों का सब से ज़्यादा जानने वाला होता है।<3>
इमाम की इस्मत
इमाम की महत्वपूर्ण विशेषताओं और इमामत की आधारभूत शर्तों में से एक शर्त इस्मत है। (इस्मत यानी इमाम का मासूम होना) इस्मत एक ऐसा मल्का है जो हक़ीक़त के इल्म और मज़बूत इरादे से वजूद में आता है। चूँकि इमाम में ये दोनों चीज़ें पाई जाती हैं इस लिए वह हर गुनाह और खता से दूर रहता है। इमाम भी दीन की शिक्षाओं को जानने, उन्हें बयान करने, उन पर अमल करने और इस्लामी समाज की अच्छाईयों और बुराईयों की पहचान के बारे में ख़ता व ग़लती से महफूज़ रहता है।
इमाम की इस्मत के लिए कुरआन, सुन्नत और अक्ल से बहुत सी दलीलें पेश की गई हैं। उन में से कुछ महत्वपूर्ण दलीलें निम्न लिखित हैं हैं।
दीन और दीनदारी की हिफाज़त इमाम की इस्मत पर आधारित है। क्यों कि इमाम पर लोगों को दीन की तरफ़ हिदायत करने और दीन को तहरीफ़ (परिवर्तन) से बचाये रखने की ज़िम्मेदारी होती है। इमाम का कलाम (प्रवचन), उनका व्यवहार और उनके द्वारा अन्य लोगों के कामों का समर्थन या खंडन करना समाज के लिए प्रभावी होता हैं। अतः इमाम दीन को समझने और उस पर अमल करने (क्रियान्वित होने) में हर ख़ता व ग़लती से सुरक्षित होना चाहिए ताकि अपने मानने वालों को सही तरीके से हिदायत कर सके।
समाज को इमाम की ज़रुरत की एक दलील यह भी है कि जनता दीन, दीन के अहकाम और शरियत के क़ानूनों को समझने में खता व गलती से ख़ाली नहीं हैं। अतः अगर उनका रहबर, इमाम या हादी भी उन्हीँ की तरह हो तो फिर उस इमाम पर किस तरह से भरोसा किया जा सकता है ? दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि अगर इमाम मासूम न हो तो जनता उसका अनुसरन करने और उसके हुक्म पर चलने में शक व संकोच करेगी।<4>
इमाम की इस्मत पर कुरआने करीम की आयतें भी दलालत करती हैं जिन में सूरह ए बकरा की 124 वीं आयत है, इस आयते शरीफ़ा में बयान हुआ है कि जब ख़ुदा वन्दे आलम ने जनाबे इब्राहीम (अ। स.) को नबूवत के बाद इमामत का बलन्द (उच्च) दर्जा दिया तो उस मौक़े पर हज़रत इब्राहीम (अ. स.) ने ख़ुदा वन्दे आलम की बारगाह में दुआ की कि इस ओहदे को मेरी नस्ल में भी बाक़ी रखना, जनाबे इब्राहीम (अ.स.) की इस दुआ पर ख़ुदा वन्दे आलम ने फरमायाः
यह मेरा ओहदा (इमामत) ज़ालिमों और सितमगरों तक नहीं पहुच सकता, यानी इमामत का यह ओहदा हज़रत इब्राहीम (अ. स.) की नस्ल में उन लोगों तक पहुंचेगा जो ज़ालिम नही होंगे।
हालांकि कुरआने करीम ने ख़ुदा वन्दे आलम के साथ शिर्क को अज़ीम ज़ुल्म क़रार दिया है और अल्लाह के हुक्म के विपरीत काम करने को अपने नफ़्स (आत्मा) पर ज़ुल्म माना है और यह गुनाह है। यानी जिस इंसान ने अपनी ज़िन्दगी के किसी भी हिस्से में कोई गुनाह किया है, वह ज़ालिम है अतः वह किसी भी हालत में इमामत के ओहदे के योग्य नहीं हो सकता है।
दूसरे शब्दो में यह कह सकते हैं कि इस बात में कोई शक नहीं है कि जनाबे इब्राहीम (अ. स.) ने इमामत को अपनी नस्ल में से उन लोगों के लिए नहीं मांगा था, जिन की पूरी उम्र गुनाहों में गुज़रे या जो पहले नेक हों और बाद में बदकार हो जायें। अगर इस बात को आधार मान कर चलें तो सिर्फ दो किस्म के लोग बाक़ी रह जाते हैं।
वह लोग जो शुरु में गुनहगार थे, लेकिन बाद में तौबा कर के नेक हो गए।
वह लोग जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कोई गुनाह न किया हो।
ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने कलाम में पहली किस्म को अलग कर दिया, यानी पहले गिरोह को (वह लोग जो शुरु में गुनहगार थे, लेकिन बाद में तौबा कर के नेक हो गए।) इमामत नहीं मिलेगी इस का नतीजा यह निकलता है कि इमामत का ओहदा सिर्फ़ दूसरे गिरोह से मख्सूस हैं, यानी उन लोगों से जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कोई गुनाह न किया हो।
इमाम, समाज को व्यवस्थित करने वाला होता है
चूँकि इंसान एक समाजिक प्राणी है और समाज इसके दिल व जान और व्यवहार को बहुत ज़्यादा प्रभावित करता है, अतः इंसान की सही तरबियत और अल्लाह की तरफ़ बढ़ने के लिए समाजिक रास्ता हमवार होना चाहिए और यह चीज़ इलाही और दीनी हुकूमत के द्वारा ही मुम्किन हो सकती है। अतः ज़रूरी है कि लोगों का इमाम व हादी ऐसा होना चाहिए जिसमें समाज को चलाने व उसे दिशा देने की योग्यता पाई जाती हो और वह कुरआन की शिक्षाओं और नबी की सुन्नत (कार्य शैली) का सहारा लेते हुए बेहतरीन तरीके से इस्लामी हुकूमत की बुनियाद डाल सके।
इमाम का अख़लाक बहुत अच्छा होता है
इमाम चूँकि पूरे इंसानी समाज का हादी (मार्गदर्शक) होता है अतः उसके लिए ज़रूरी है कि वह तमाम बुराईयों से पाक हो और उसके अन्दर बेहतरीन अख़लाक पाया जाता हो, क्यों कि वह अपने मानने वालों के लिए इंसाने कामिल का बेहतरीन नमूना माना जाता है।
हज़रत इमामे रिज़ा (अ. स.) फरमाते हैं कि :
इमाम की कुछ निशानियां होती हैं, जैसे, वह सब से बड़ा आलिम, सब से ज़्यादा नेक, सब से ज़्यादा हलीम (बर्दाश्त करने वाला), सब से ज़्यादा बहादुर, सब से ज़्यादा सखी (दानी) और सब से ज़्यादा इबादत करने वाला होता है।<5>
इसके अलावा चूँकि इमाम, पैग़म्बरे इस्लाम (स।) का जानशीन (उत्तराधिकारी) होता है, और वह हर वक़्त इंसानों की तालीम व तरबियत की कोशिश करता रहता है अतः उसके लिए ज़रूरी है कि वह अख़लाक़ के मैदान में दूसरों से ज़्यादा से सुसज्जित हो।
हज़रत इमाम अली (अ. स.) फरमाते हैं कि :
जो इंसान (अल्लाह के हुक्मे) ख़ुद को लोगों का इमाम बना ले उसके लिए ज़रुरी है कि दूसरों को तालीम देने से पहले ख़ुद अपनी तालीम के लिए कोशिश करे, और ज़बान के द्वारा लोगों की तरबियत करने से पहले, अपने व्यवहार व किरदार से दूसरों की तरबियत करे।<6>
इमाम ख़ुदा की तरफ़ से मंसूब (नियुक्त) होता है
शिया मतानुसार पैग़म्बर (स.) का जानशीन (इमाम) सिर्फ अल्लाह के हुक्म से चुना जाता है और वही इमाम को मंसूब (नियुक्त) करता है। जब अल्लाह किसी को इमाम बना देता है तो पैग़म्बर (स.) उसे इमाम के रूप में पहचनवाते हैं। अतः इस मसले में किसी भी इंसान या गिरोह को हस्तक्षेप का हक़ नहीं है।
इमाम के अल्लाह की तरफ़ से मंसूब होने पर बहुत सी दलीलें है, उनमें से कुछ निमन लिखित हैं।
कुरआने करीम के अनुसार ख़ुदा वन्दे आलम तमाम चीज़ों पर हाकिमे मुतलक़ (जो समस्त चीज़ों को हुक्म देता है या जिसका हुक्म हर चीज़ पर लागू होता है, उसे हाकिमे मुतलक़ कहते हैं।) है और उसकी इताअत (अज्ञा पालन) सब के लिए ज़रुरी है। ज़ाहिर है कि यह हाकमियत ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से (इसकी योग्यता रखने वाले) किसी भी इंसान को दी जा सकती है। अतः जिस तरह नबी और पैग़म्बर (अ. स.) ख़ुदा की तरफ़ से नियुक्त होते हैं, उसी तरह इमाम को भी ख़ुदा नियुक्त करता है और इमाम लोगों पर विलायत रखता है यानी उसे समस्त लोगों पर पूर्ण अधिकार होता है।
इस से पहले (ऊपर) इमाम के लिए कुछ खास विशेषताएं लिखी गई हैं जैसे इस्मत, इल्म आदि...., और यह बात स्पष्ट है कि इन ऐसी विशेषताएं रखने वाले इंसान की पहचान सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम ही करा सकता है, क्यों कि वही इंसान के ज़ाहिर व बातिन (प्रत्यक्ष व परोक्ष) से आगाह है, जैसा कि ख़ुदा वन्दे आलम कुरआने मजीद में जनाबे इब्राहीम (अ. स.) को संबोधित करते हुए फरमाता हैः
हम ने, तुम को लोगों का इमाम बनाया।7
सबसे अच्छी बात
अपनी बात के इस आखरी हिस्से में हम उचित समझते हैं कि आठवें इमाम हज़रत अली रिज़ा (अ.स.) की वह हदीस बयान करें जिसमें इमाम (अ. स.) इमाम की विशेषताओं का वर्णन किया है।
इमाम (अ. स.) ने कहा कि : जिन्होंने इमामत के बारे में मत भेद किया और यह समझ बैठे कि इमामत एक चुनाव पर आधारित मसला है, उन्होंने अपनी अज्ञानता का सबूत दिया।....... क्या जनता जानती है कि उम्मत के बीच इमामत की क्या गरीमा है, जो वह मिल बैठ कर इमाम का चुनाव कर ले।
इसमें कोई शक नही है कि इमामत का ओहदा बहुत बुलन्द, उच्च व महत्वपूर्ण है और उस की गहराई इतनी ज़्यादा है कि लोगों की अक्ल उस तक नहीं पहुँच पाती है या वह अपनी राय के द्वारा उस तक नहीं पहुँच सकते हैं।
बेशक इमामत वह ओहदा है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने जनाबे इब्राहीम (अ. स.) को नबूवत व खुल्लत देने के बाद तीसरे दर्जे पर इमामत दी है। इमामत अल्लाह व रसूल (स.) की ख़िलाफ़त और हज़रत अमीरुल मोमेनीन अली (अ. स.) व हज़रत इमाम हसन व हज़रत इमाम हुसैन (अ. स.) की मीरास है।
सच्चाई तो यह है कि इमामत, दीन की बाग ड़ोर, मुसलमानों के कामों की व्यवस्था की बुनियाद, मोमिनीन की इज़्ज़त, दुनिया की खैरो भलाई का ज़रिया है और नमाज़, रोज़ा, हज, जिहाद, के कामिल होने का साधन है।, इमाम के ज़रिये ही (उस की विलायत को क़बूल करने की हालत में) सरहदों की हिफ़ाज़त होती है।
इमाम अल्लाह की तरफ़ से हलाल कामों को हलाल और उसकी तरफ़ से हराम किये गये कामों को हराम करता है। वह ख़ुदा वन्दे आलम के हक़ीक़ी हुक्म के अनुसार हुक्म करता है) हुदूदे उलाही को क़ायम करता है, ख़ुदा के दीन की हिमायत करता है, और हिकमत व अच्छे वाज़ व नसीहत के ज़रिये, बेहतरीन दलीलों के साथ लोगों को ख़ुदा की तरफ़ बुलाता है।
इमाम सूरज की तरह उदय होता है और उस की रौशनी पूरी दुनिया को प्रकाशित कर देती है, और वह ख़ुद उफ़क़ (अक्षय) में इस तरह से रहता है कि उस तक हाथ और आँखें नहीं पहुँच पाते। इमाम चमकता हुआ चाँद, रौशन चिराग, चमकने वाला नूर, अंधेरों, शहरो व जंगलों और दरियाओं के रास्तों में रहनुमाई (मार्गदर्शन) करने वाला सितारा है, और लड़ाई झगड़ों व जिहालत से छुटकारा दिलाने वाला है।
इमाम हमदर्द दोस्त, मेहरबान बाप, सच्चा भाई, अपने छोटे बच्चों से प्यार करने वाली माँ जैसा और बड़ी - बड़ी मुसीबतों में लोगों के लिए पनाह गाह होता है। इमाम गुनाहों और बुराईयों से पाक करने वाला होता है। वह मख़सूस बुर्दबारी और हिल्म (धैर्य) की निशानी रखता है। इमाम अपने ज़माने का तन्हा इंसान होता है और ऐसा इंसान होता है, जिसकी अज़मत व उच्चता के न कोई क़रीब जा सकता है और न कोई आलिम उस की बराबरी कर सकता है, न कोई उस की जगह ले सकता है और न ही कोई उस जैसा दूसरा मिल सकता है।
अतः इमाम की पहचान कौन कर सकता है ? या कौन इमाम का चुनाव कर सकता ? यहाँ पर अक़्ल हैरान रह जाती है, आँखें बे नूर, बड़े छोटे और बुद्दीजीवी दाँतों तले ऊँगलियाँ दबाते हैं, खुतबा (वक्ता) लाचार हो जाते हैं और उन में इमाम का श्रेष्ठ कामों की तारीफ़ करने की ताक़त नहीं रहती और वह सभी अपनी लाचारी का इक़रार करते हैं।8
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1कुरआने करीम में पैग़म्बरे अकरम (स.) से कहा गया है कि हम ने तुम पर ज़िक्र (कुरआने करीम) नाज़िल किया ताकि आप उस में बयान होने वाली चीज़ों को लोगों के सामने बयान करें। (सूरह ए नहल, आयत न. 44)
2. यहाँ पर यह बात बताना उचित होगा कि मासूम इमाम के द्वारा (हुकूमत की स्थापना) रास्ता हमवार होने की सूरत में ही मुम्किन है, लेकिन दूसरी तमाम ज़िम्मेदारियाँ (यहां तक कि ग़ैबत के ज़माने में भी) अंजाम देना ज़रुरी है। अगरचे इमाम (अ. स.) के ज़ुहूर और लोगों के दरमियान ज़ाहिर बज़ाहिर होने की सूरत में ये बात सब पर ज़ाहिर है। इस के अलावा दूसरा नुक्ता यह है कि इस हिस्से में जो कुछ बयान हुआ है उस में लोगों की मअनवी (आध्यात्मिक) ज़िन्दगी में इमाम की ज़रुरत है, लेकिन तमाम दुनिया को (वजूदे इमाम) की ज़रुरत है इस मतलब को (ग़ायब इमाम के फ़ायदे) नामक बहस में बयान किया जायेगा।
3मिज़ानुल हिकमत, जिल्द न. 1, हदीस 861.
4. इस के अलावा अगर इमाम खता व गल्ती से सुरक्षित न हो तो फिर किसी दूसरे इमाम की तलाश की जायेगी ताकि लोगों की यह ज़रुरत पूरी हो सके और अगर वह भी खताओं से सुरक्षित न हो तो उसके फिर किसी तीसरे इमाम को तलाश किया जायेगा और यह सिलसिला इसी तरह आगे बढ़ता चला जायेगा और ऐसा सिलसिला फलसफी लिहाज़ से बातिल और बेबुनियाद है जिस को फलसफे की इस्तेलाह में तसलसुल कहा जाता है।
5 मआनीयुल अख़बार, जिल्द न। 4, पेज न। 102.
6मिज़ानुल हिकमत, बाब 147, हदीस, 85.
7सूरह बकरा, आयत न.124
8उसूले काफ़ी, जिल्द न. 1, बाब 15, हदीस, 1, पेज न. 255,

Saturday, May 16, 2009

नहजुल बलागा से अमीरुल मोमिनीन अली के उपदेशों का अध्याय - 1

अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम के संकलित आदेशों एवं उपदेशों का अध्यायइस ध्याय में प्रश्नों के उत्तर और छोटे छोटे दार्शनिक वाक्यों का संकलन अंकित है जो विभिन्न लक्ष्यों एवं उद्देश्यों के संबन्ध में वर्णन किये गए हैं।1. झगड़े के समय ऊँट के दो साल के बच्चे की तरह रहो न तो उसकी पीठ पर सवार हुआ जा सकता है और न ही उसके थनों से दूध दुहा जा सकता है।2. जिसने लालच को अपना आचरण बनाया, उसने अपने को हल्का किया और जिसने अपनी परेशानी का वर्णन किया वह अपमानित होने पर तैयार हो गया, और जिसने अपनी ज़बान को अपने ऊपर हाकिम बना लिया उसने अपने आपको ज़लील कर लिया।3. कंजूसी एक ऐब है और डर नुक़्सान, निर्धनता चतुर एवं बुद्घिमान ब्यक्ति की ज़बान को तर्क शक्ति में असमर्थ बना देती है और निर्धन इंसान अपने शहर में भी अजनबी होता है।4. असमर्थता मुसीबत है और सब्र व संतोष वीरता है, दुनिया को न चाहना दौलत व पारसाई ढाल है और रिज़ा अच्छे सभासद है। 5. इल्म, सबसे अच्छी मीरास और सदाचार नवीन आभूषण हैं, और विचार साफ़ आईना (दर्पण) है।6. बुद्घिमान इंसान का सीना उसके रहस्यों का संदूक़ और सदव्यवहार मुहब्बत का जाल होता है। शहनशीलता व धैर्य बुराईयों की कब्र है। दूसरी जगह इस प्रकार है, मेल मिलाप व संधी दोषों को छुपाने का साधन है और जो व्यक्ति स्वयं से खुश रहता है उससे दूसरे नाराज़ रहते हैं।7. सदक़ा (दान) कामयाब दवा है। दुनिया में बन्दों के कर्म आख़िरत (परलोक) में उनकी आंखों के सामने होंगे।8. यह इंसान आश्चर्यजनक, चर्बी से देखता है, गोश्त (मास) के लोथड़े से बोलता है, हड्डी से सुनता है और सूराख (छिद्र) से साँस लेता है।9. जब दुनिया किसी की तरफ़ बढ़ती है तो दूसरों की अच्छाइयाँ भी उसे दे देती है, और जब उससे मुँह फेरती है तो खुद उसकी अच्छाइयाँ भी उससे छीन लेती है।10. लोगों से इस तरह मिलो कि अगर मर जाओ तो वह तुम पर रोयें और जिन्दा रहो तो तुमसे (मिलने के) अभिलाषी रहें।11. जब दुश्मन पर क़ाबू पाओ, तो इस क़ाबू पाने का शुक्र, उसे माफ़ करना क़रार दो।12. सबसे अधिक असमर्थ वह इंसान है जो किसी को अपना दोस्त न बन सके, और उससे भी आधिक असमर्थ वह जो (किसी को दोस्त बनाकर) उसे खो दे।13. जब तुम्हें नेमतें मिलें तो नाशुकरी करके उन्हें अपने तक पहुंचने से न रोको।14. जिसे अपने लोग छोड़ देते हैं, उसे ग़ैर मिल जाते हैं।15. हर धोका खाये हुए की निंदा नहीं की जासकती।16. काम तक़दीर (भाग्य) के सामने इस तरह नतमस्तक है कि कभी कभी तदबीर (उपाय व प्रयास) के नतीजे में मौत हो जाती है।17. हज़रत अली (अ.) से पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहे व आलिहि वसल्लम की इस हदीस के बारे में पूछा गया कि "बुढ़ापे को (ख़िज़ाब से) बदल दो और यहूद जैसे न बनो " तो उन्होंने जवाब दिया कि पैग़मबर (स0) ने यह उस वक़्त कहा था जब दीन कम था (मुसलमान कम थे) लेकिन अब जबकि दीन का क्षेत्र बढ़ चुका है और दीन सीना टेक कर जम चुका है तो हर इंसान जो चाहे करे।(उद्देश्य यह है कि इस्लाम के प्रारम्भिक दिनों में चूँकि मुसलमानों की संख्या कम थी इस लिए ज़रूरी थी कि मुसलमानों के अस्तित्व को बाक़ी रखने के लिए उन्हें यहूदियों से भिन्न रखा जाए, इसी लिए पैग़म्बर (स0) ने ख़िज़ाब करने (बाल रंगने) का हुक्म दिया। यहूदियों में बालों को रंगने प्रचलन नहीं है। इसके अतिरिक्त यह उद्देश्य भी था कि वह दुश्मन के सामने कमज़ोर व वृद्घ दिखाई न दें।)18. जिन लोगों ने आपके साथ रहकर लड़ने से जान बचाई उनके बारे में कहा कि उन्होंने हक़ को ज़लील कर दिया और बातिल की भी मदद नहीं की। 19. जो इंसान अपनी उम्मीद के साथ दौड़ता है वह मौत से ठोकर खाता है।20. शीलवान लोगों की ग़लतियों को अनदेखा करो क्योंकि उनमें जो भी ठोकर खाकर गिरता है, अल्लाह उसके हाथ में हाथ देकर उसे ऊपर उठा लेता है।21. डर का परिणाम असफलता और शर्म का फल वंचित रह जाना है। फुर्सत बादल की तरह गुज़र जाती हैं अतः फ़ुर्सत को अच्छा समझो।22. हमारा हक़ है, अगर वह हमें दिया गया तो हम ले लेंगे वर्ना हम ऊंट के पीछे वाले पुट्टों पर सवार होंगे चाहे रात की यात्रा कितनी ही लम्बी क्यों न हो जाये।23. जिसे उसके कर्म सुस्त बना दें, उसे उसका नसब (गोत्र व वंश) आगे नहीं बढ़ा सकता।24. किसी फ़रियादी की फ़रियाद को सुनना और संकट ग्रस्त को संकट से छुटकारा दिलाना बड़े गुनाहों का कफ्फ़ारा (प्रायश्चित) है।25. ऐ आदम (अ0 स0) की संतान, जब तू देखे कि अल्लाह तुझे लगातार नेमतें दे रहा है और तू उसकी अवज्ञा कर रहा है तो इस स्थिति में उससे डरना चाहिए।26. जो, कोई बात दिल में छिपाकर रखता है वह उसकी ज़बान से अचानक निकले हुए शब्दों और चेहरे से खुल कर सामने आजाती है। 27. बीमारी में जब तक हिम्मत (साहस) साथ दे चलते फिरते रहो। 28. सबसे अच्छा ज़ोह्द, ज़ोह्द को छुपाये रखना है।29. जब तुम (दुनिया) को पीठ दिखा रहे हो और मौत सामने से तुम्हारी तरफ बढ़ रही हो तो फिर मुलाक़ात में देर कैसी।30. डरो, डरो, अल्लाह की क़सम उसने इस तरह छुपाया है जैसे उसने तुम्हें मुक्त कर दिया है।31. हज़रत अली (अ.) से ईमान के बारे में सवाल किया गया तो उन्होने जवाब दिया कि ईमान चार स्तम्भों पर आधारित है:... सब्र (धैर्य), यक़ीन (विश्वास), अद्ल (न्याय) और जिहाद (धर्म युद्घ)।32. अद्ल (न्याय) की चार शाखायेँ हैं:... अभिलाषा, भय, े होगा वह ख्वाहिशों (इच्छाओं) को भुला देगा, और जो दोज़ख़ (नर्क) से खौफ़ (भय) खायेगा वह मुहर्रमात (वर्जित वस्तुओं) से किनारा कशी करेगा, वह मुसीबतों (विपत्तियों) को सहल (सहल) समझेगा, और जिसे मौत का इन्तिज़ार होगा वह नेक कामों (शुभ कायों) में जल्दी करेगा। और यक़ीन (विश्वास) की भी चार शाख़ाएं है :---रौशन निगाही (दूरदर्शिता), हक़ीक़त रसी (यथार्थवादीता), इब्रत अनदोज़ी (उपदेश ग्रहण शक्ति) और अगलों का तौर तरीक़ा (पूर्वजों का आचारण)। चुनांचे जो दानिश व आगाही (बुद्दि एंव ज्ञान) हासिल (ग्रहण) करेगा उस के सामने इल्मो अमल (ज्ञान एवं कर्म) आशकारा (प्रत्यक्ष) हो जायेगा वह इब्रत (उपदेश) से आशना (परिचित) होगा, और जो इब्रत से आशना होगा वह ऐसा है जैसे वह पहले लोगों में मौजूद रहा हो। और अदल (न्याय) की भी चार शाखें हैं:..तहों (तथ्यों) तक पहुचने वाली फ़िक्र (चिन्तन), इल्मी गहराई, फ़ैसले (निर्णय) की खूबी और अक़ल (बुद्घि) की पायदारी (दृढ़ता) है। चुनांचे जिस ने ग़ौरो व फ़िक्र (सोच विचार) किया वह इल्म (ज्ञान) की गहराइयों से आशना (परिचिय) हुआ, और जो इल्म की गहराइयों में उतरा फैसले (निर्णय) के सर चशमों (मुख्य सोतों) से सेराब (प्रप्त) हो कर पलटा, और जिस ने हिल्म (धैर्य) व बुर्दबारी (सहिषणुता) इखतियार की इस ने अपने मुआमेलात में कोई कमी नहीं और लोगों मे नेक नाम रह कर ज़िन्दगी बसर ही। और जिहाद की भी चार शाखाएं हैं :…अम्र बिल मारुफ़ (नेकी के आदेश), नही अनिल मुन्कर (बुराई से रोकना), तमाम मौक़ों (प्रत्येक दशा) पर रास्त गुफतारी (सत्य बोलना) और बद किर्दारों (दुष्टों) से नफ़रत (घ्रणा)। चुनांचे जिस ने अम्र बिल मअरुफ़ (नेकी का आदेश) किया उस ने मोमिनीन की पुश्त (पीठ) मज़बूत की, और जिस ने नहीं अनिल मुन्कर किया (बुराई से रोका) उस ने काफ़ियों (नास्तिकों) को ज़लील (अपमानित) किया, और जिस ने तमाम रोकों पर (प्रत्येक दशा) में सच बोला उस ने अपना फ़र्ज़ (कर्तव्य) अदा कर दिया, और जिस ने फ़ासिक़ों (खुल्लम खुल्ला पाप करने वालों) को बुरा समझा और अल्लाह भी उस के लिये ग़ज़बनाक (क्रोधित) होआ, अल्लाह भी उस के लिये दूसरों पर ग़ज़बनाक़ होगा और क़ियामत (प्रलय) के दिन उस की खुशी का समान करेगा। 3. कुफ़्र (अधर्म) भी चार सुतूनों (स्तम्भों) पर क़ायम (आधारित) हैः---हद (सीमा) से बढ़ी हुई काविश (चिंता, शंका), झगडालू पन, कज रवी (टेढ़ी चाल, दुराचरण और इख़तिलाफञ (विरोध) तो जो बेजा तअम्मुक़ (अनुचित चिन्तन) व काविश (अनुचित शंका) करता है वह हक़ (सत्य) की करफ़ रुजूउ (प्रवृत्ति) नहीं होता और जो जिहालत (अज्ञान) की वजह से आए दिन झगड़े करता है वह हक़ (सत्य) से हमेशा अंधा रहता है, और जो हक़ (सत्य) से मुंह मोड़ लेता है वह अच्छाई को बुराई और बुराई को अच्छाई समझने लगता है, और गुराही (पथभ्रष्टता) के नशे में मदहोश (अचेत) पड़ा रहता है, और जो हक़ सत्य की ख़िलाफ़ वर्ज़ी (विरोध) करता है उस के रास्ते बहुत दुशवार (कठिन) और उस के मुआमलात सख्त पेचीदा हो जाते हैँ, और बच निकलने की राह उस के लिये तंग हो जाती है। शक (शंका) की भी चार शाखें हैं-----कठहुज्जती, ख़ौफ़ (भय) सरगर्दानी (विद्रोह) और बातिल (असत्य, अधर्म) के आगे जबीं साई (नतमस्तक होना)। चुनांचे जिस ने लड़ाई झगड़े को अपना शिआर (चलन) बना लिया उस की रीत कभी सुब्ह से हमकिनार नहीं होसकती, और जिस को सामने की चीज़ों ने हौल (ब्यग्रता) में डाल दिया वह उल्टे पैर पलट जाता है, और जो शको सब्हे (आशंकाओं) में सरगर्दा रहता है उसे शयातीन (दुष्ट आतमायें) अपने पंजों से रौंद डालते हैं और जिस ने दुनिया व आख़िरत (लोक व परलोक) की तबाही (विनाश) के आगे सरे तसलीम ख़म कर दिया (झुका दिया) वह दोजहां (दोनों लोक) में तबाह हुआ।4. नेक (शुभ) काम करने वाला खुद उस काम से बेहतर, और बुराई करने वाला खुद उस बुराई से बदतर है।5. सख़ावत ( दानशीलता) करो लेकिन फ़ुज़ूल ख़र्ची न करो, और जुज़ रसी (मितव्ययता) करो मगर बुख्ल (कंजूसी) न करो।6. बेहतरीन दौलतमन्दी यह है कि तमन्नाओं (आकांछाओं) को तर्क (त्याग) करे।7. जो शख्स लोगों के बारे में झट से ऐसी बातें कह देता है जो नाग़वार लगें तो फिर वह उसके लिए ऐसी बातें कहते हैं जिन्हें वह जानते नहीं।8. जिस ने तूल तवील (लम्बी चौड़ी) उम्मीदें बांधींष उसने अपने अअमाल (कर्म) बिगाड़ लिये।9. अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) से शाम की जानिब (ओर) रवाना होने तक मक़ामे अंवार के ज़मीनदारों का सामना हुआ, तो वह आप को देख कर पियादा हो गए और आप के साथ दौड़ने लगे। आप ने फरमाया, यह तुम ने क्या किया, उन्होंने कहा यह हमारा आम तरीका है जिससे हम अपने हुकमरानों (शासकों की) तअज़ीम बजा लाते हैं। आप ने फरमाया खुदा की कसम इससे तुम्हारे हुकमरानों को कुछ भी फ़ायदा नहीं पहुँचता, अलबत्ता तुम इस दुनियां में अपने को ज़हमत व मशक्कत में ड़ालते हो और आखिरत में इसकी वजह से बद बख्ती (दुर्भाग्य) मोल लेते हो। वह मशक्कत (परिश्रम) कितने घाटे वाली है जिसका नतीजा सजाए उखूरवी (परलोक में दण्ड) हो, और वह राहत कितनी फायदा मन्द है जिसका नतीजा दोज़ख़ से अमान (नर्क से शरण) हो।10. अपने फ़र्ज़न्द (सु पुत्र) हज़रत इमामे हसन अलैहिस्सलाम से फरमाया, मुझ से चार और फिर चार बातें याद रखो। इन के होते हुए जो कुछ करोगे वह तुम्हें ज़रर (हानि) न पहुचायेगाः---सब से बड़ी सर्वत (समृद्घि) अक्लो दानिश (बुद्घि एवं समझ) है, और नादारी (ग़रीबी) हिमाक़त व बे अक्ली (मूर्खता व वृद्घि हीनता) है, और सब से बड़ी वहशत (भय) गुरुर व खुद बीनी (घमंड एवं अहम भाव) है, और सब से बड़ा जौहरे ज़ाती (बय्क्तिगत गुण) हुस्त्रे अख़लाक़ (सद ब्यवहार) है।ऐ फ़र्ज़न्द (सुपुत्र)। बेवकूफ़ (मूर्ख) से दोस्ती न करना, क्यों कि वह तुम्हें फ़ायदा (लाभ) पहुंचाना चाहेगा तो नुक्सान (हानि) पहुंचायेगा। और बख़ील (कंजूस) से दोस्ती न करना क्यों कि जब तुम्हें उस की मदद की इन्तिहाई एहतियाज (अत्यन्त आवश्यकता) होगी वह तुम से दूस भागे गा। और बद किर्दार (दुशचरित्र) से दोस्ती न करना वर्ना वह तुम्हें कौड़ियों के मोल बेच डालेगा। और झूटे से दोस्ती न करना क्यों कि वह तुम्हें सराब की मानिन्द (मृण त्रष्णा के समान) तुम्हारे लिये दूर की चीज़ों को क़रीब और क़रीब की चीज़ों को दूर करके दिय़ायेगा।11. मुस्तहबात से कुर्बे इलाही नहीं हासिल हो सकता, जब कि वह वाजिबात में सद्देराह (अवरुद्घ) हों।12. अक़्लमन्द (बुद्घिमान) की ज़बान उसके दिल के पीछे है और बेवकूफ़(मूर्ख) का दिल उसकी ज़बान के पीछे है।मतलब यह है कि अक़्लमन्द (बुद्घिमान) उस वक्त ज़बान खोलता है जब दिल में सोच विचार और ग़ौरो फ़िक्र से नतीजा निकाल लेता है लेकिन बेवकूफ़ बे सोचे समझे जो मुंह में आता है कह ग़ुज़रता है। इस प्रकार जैसे बुद्घिमान की ज़बान उसके दिल (हृदय) के अधीन (ताबे) है और बेवकूफ़ (बुद्घिहीन) का दिल उसकी ज़बान के ताबे (अधीन) है।13. एक दूसरे स्थान पर इस प्रकार है।बेवकूफ़ (मूर्ख बुद्घिहीन) का दिल उसके मुंह में है और अक़्लमन्द (बुद्घिमान) की ज़बान उसके दिल में है।14. अपने एक साथी से उस की बीमारी की हालत में फ़रमाया:अल्लाह ने तुम्हारे मरज़ (रोग) को तुम्हारे गुनाहों (पापों) को दूर करने का ज़रीया (साधन) क़रार दिया है क्यों कि खुद मरज़ (रोग) का कोई सवाल (पुण्य) नहीं है मगर वह गुनाहों (पापों) को मिटाता और उन्हें इस तरह झाड़ देता है जिस तरह दरख्त (वृक्ष)से पत्ते झाड़ते है। हां सवाब (पुण्य) उस में होता है कि कुछ ज़बान से कहा जाए और कुछ हाथ पैरों से किया जाए। और खुदावन्दे आलम अपने बन्दों में से नेक नीयती और पाक दामनी की वजह से जिसे चाहता है जन्नत में दाखिल करता है।सैयिद रज़ी कहते है कि हज़रत ने सच फ़रमाया है कि मरज़ (रोग) का कोई सावाब (पुण्य) नहीं है क्यों कि मरज़ (रोग) तो उस क़िस्म (प्रकार) की चीज़ों में से है जिन में एवज़ (बदले) का इस्तेहक़ाक़ (पात्र) होता है इस लिये कि एवज़ अल्लाह की तरफ़ (ओर) से बन्दे के साथ जो अम्र अमल में आए (बात हो) जौसे दुख, दर्द बीमारी वगैरह (इत्यादि) इस के मुक़ाबिले में उसे मिलता है। और अज्र व सवाब (पुरस्कार व पुण्य) वह है कि किसी अमल (क्रिया) पर उसे कुछ हासिल (प्राप्त) हो। लिहाज़ा एवज़ (बदला) और है, और अज्र (पुरस्कार, पुण्य) और है और इस फ़र्क़ (अन्तर) को अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने अपने इल्मे रौशन (उज्जवल ज्ञान) और सायब राय के मुताबिक़ (समुचित परामर्श के अनुसार) बयान फ़रमा दिया है। 15. ख़बाब इबने अरत के बारे फ़रमाया, खुदा, हबाब इबने अरत पर रहमत अपनी शामिले हाल फ़रमाए, वह अपनी रज़ामन्दी से इस्लाम लाए और बखुशी हिजरत की औ ज़रूरत भर क़नाअत (निस्पृता) की और अल्लाह तआला के फ़ैसलों पर राज़ी रहे और मुजाहिदाना शान से ज़िन्दगी बसर की।हज़रत हबाब इबने अरत पैग़मबर के जलीलुल क़द्र सहाबी और मुहाजरीने अव्वलीन में से थे। उन्हो ने क़ुरैश के हाथों तरह तरह की मुसीबत उठाई, चिलचिलाती धूप में खड़े किये गए, आग पर लिटाए गए, मगर किसी तरह पैग़म्बर अक़रम का दामन छोड़ना गवारा न किया। बद्र और दूसरे मअरिकों में रिसालत मआब (स0) के हम रिकाब रहे, सिफ्फ़िन व नहरवान में अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) का साथ दिया। मदीना छोड़ कर कूफ़े में सुकूनत (निवास) इखतियार कर ली थी, चुनांचे यहीं पर 73 वर्ष की उम्र में सन 39 हिजरी में इन्तिक़ाल फ़रमाया। नमाज़े जनाज़ा अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने पढ़ाई और बैरुन कूफ़ा दफ्न हुए और हज़रत ने यह कलिमाते तरहहुम (कृपा के वाक्य) उन की क़ब्र पर खड़े हो कर फ़रमाए। 16. खुशानसीब (अहोभाग्य) उसके जिसने आखिरत (परलोक) को याद रखा। हिसाबो किताब के लिए अमल (कर्म) किया, ज़रुरत पर क़नाअत (निस्पृहता) की ओर अल्लाह से राज़ी व खुशनूद (प्रसत्र) रहा।17. अगर मैं मोमिन की नाक पर तलवारें लगाऊं कि वह मुझे दुशमन रखे तो जब भी वह मुझ से दुशमनी (शत्रुता) न रखेगा और अगर तमाम मतए दुनिया (समस्त सांसारिक धन) काफ़िर के आगे ढ़ेर कर दूं कि वह मुझे देस्त (मित्र) रखे तो वह मुझे दोस्त न रखेगा इस लिए कि यह वह फैसला (निर्णय) है कि जो पैग़मबरे उम्मी सल्लल्लाहो अलैहै व आलेही व सल्लम की ज़बान से हो गया कि आप ने फरमाया। ए अली कोई मोमिन तुम से दुशमनी न रखेगा, और कोई मुनाफिक़ तुम से मुहवब्बत न करेगा।18. वह गुनाह (पाप) जिसका तुम्हें रंज (दुख) हो अल्लाह के नज़दीक उस नेकी से कहीं अच्छा है जो तुम्हें खुद पसन्द बना दे।जो शख्स (व्यक्ति) इरतिकाबे गुनाह (पाप करने) के बाद निदामत व पशीमानी (लज्जा एवं दुख) महसूस करे और अल्लाह की बारगाह में तौबा (प्रायशचित) करे और गुनाह की उक़ूबत (पाप के दण्ड) से महफूज़ (सुरक्षित) और तौबा के सवाब (प्रायशचित के पुण्य) का मुस्तहक (पात्र) होता है और जो नेक अमल बजा लाने (शुभ कार्य करने) के बाद दूसरों के मुकाबिले में बरतरी (बडप्पन) महसूस करता है और अपनी नेकी पर घमण्ड करते हुए यह समझता है कि अब उसके लिए कोई खटका नहीं रहा वह अपनी नेकी को बर्बाद (नष्ट) कर देता है, और हुस्त्रे अमल (शुभ कर्म) के सवाब के महरूम (वंचित) रहता है। ज़ाहिर है कि जो तौबा (प्रायशचित) से मअसियत (पाप) के दाग़ को साफ कर चुका हो वह उससे बेहतर होगा जो अपने गुरूर (अहम भाव) की वजह से अपने किये को ज़ाए (नष्ट) कर चुका हो और तौबा (प्रायशचित) के सवाब से भी उसका दामन खाली हो।19. इंसान (मनुष्य) की जितनी हिम्मत हो उतनी ही उसकी कद्र व क़ीमत (मान मर्यादा) है, और जितनी मुरव्वत और जवां मर्दी होगी उतनी ही रास्त गोई (सत्य कथन) होगी, और जितनी हिमायत व खुद्दारी (लाज एवं स्वाभिमान) होगी उतनी ही शुजाअत (वीरता) होगी, और जितनी ग़ैरत (लज्जा) होगी उतनी ही पाक दामनी (निर्दोषिता) होगी।20. कामयाबी (सफलता) दूर अन्देशी से वाबस्ता (दूरदर्शिता से संलग्र) है, और दूस अन्देशी (दूरदर्शिता) फ़िक्र व तदब्बुर (चिन्तन एवं उपाय) को काम में लाने से और तदब्बुर (उपाय) भेदों को छुपा कर रखने से।21. भूक़े शरीफ़ (सज्जन) और पेट भरे कमीने (दुष्य) के हमले (आक्रमण) से डरते रहो।22. लोगों के दिस सहराई जानवर (वन्य जन्तु) हैं, जो उन के सुधायेगा उस की तरफ झुकेंगे।इस कथन से इस द्रष्टिकोण का समर्थन होता है कि मानव ह्रदय की उतपत्ति प्रक्रति के अनुसार भयभीत बनी है, और उसमें प्रेम भाव एक प्रशिक्षित भावना है इसी लिए जब प्रेम भाव के दवाई व कारण उत्पत्र होते हैं तो वे परिचित हो जाते हैं और जब उसके आमंत्रण समाप्त हो जाते हैं या उसके विरुद्घ घ्रणा के भाव पैदा होते हैं तो भय की ओर पलट जाते हैं और फिर बड़ी मुश्किल से प्रेम एवं मिलाप की डगर पर चल पाते हैं।23. जब तक तुम्हारे नसीब (भाग्य) यावर (सहायक) हैं तुम्हारे ऐब (दोष) ढके हुऐ हैं।24. मुआफ़ (क्षमा) करना सब से ज़ियादा (अधिक) उसे ज़ेब (शोभा) देता है जो सज़ा (दण्ड) देने पर क़ादिर (समर्थ) हो।25. सख़ावत (दान) यह है जो बिन मांगे हो, और मांगने से देना या शर्म से (लज्जा से) है यह मज़म्मत (निन्दा) के भय से।26. अक्ल (बुद्घि) से बढ़ कर कोई सर्वत (समृद्घि) नहीं, और अगर जिहालत (अज्ञान) से बढ़ कर कोई बे मायगी (निर्धनता) नहीं, अदल (साहित्य) से बढ़ कर कोई मीरास (तारिका, दाया) नहीं, और मशविरे (परामर्श) से ज़ियादा कोई चीज़ मुईन व मददगार (सहयोगी, व सहायक) नहीं।27. सब्र (धैर्य) दो तरह का होता है, एक नागवार बातों पर सब्र, दूसरे पसन्दीदा चीज़ों से सब्र (धैर्य)।28. दौलत (धन) हो तो परदेस में भी देश है, और मुफ़्लिसी (निर्धनता) हो तो देश में भी परदेस।अगर कोई साहबे दौलत (धनवान) हो तो वह जहां कहीं होगा उसे दोस्त व आशना (परिचित) मिल जायेंगे जिस की वजह से उसे परदेस में मुलाफ़िरत (यात्री होने) का एहसास न होगा और अगर फ़क़ीर व नादार (निर्धन व कंगाल) हो तो उसे वतन (देश) में भी दोस्त व आशना (मित्र एवं परिचित) मुयस्सर (उपलब्ध) न होंगे क्यों कि लोग ग़रीब व कंगाल से दोस्ती करने के इच्छुक नहीं होते और न उस से तअल्लुक़ात (सम्बन्ध) बढ़ाना पसन्द करते हैं इस लिये वह वतन में भी बे वतन होता है, और कोई उस का जानने वाला और हाल पूछने वाला नहीं होता।29. क़नाअत (संतोष) वह सरमाया (धन) है जो ख़त्म नहीं हो सकता।30. माल नफ्सानी ख़्वाहिशों (बुरी इच्छाओं) का सर चश्मा (मुख्य श्रोत अर्थात जन्मदाता) है।31. जो बुराइयों से डराए वह तुम्हारे लिए मुजूदा (शुभ समाचार) सुनाने वाले के मानिन्द (समान) है।32. ज़बान एक ऐसा दरिन्दा (हिंसक जन्तु) है कि अगर उसे खुला छोड़ दिया जाए तो फाड़ खाए।33. औरत (स्त्री) एक ऐसा बिच्छू है जिस के लिपटने में भी मजा है।34. जब तुम पर सलाम किया जाए तो उस का अच्छे तरीक़े से जवाब दो, और जब तुम पर कोई एह्सान (उपकार) करे तो उस स बढ़ चढ़ कर बदला दो, अगरचे (यघपि) इस सूरत में भी फ़जीलत (श्रेय) पहल करने वाले ही के लिये होगी।35. सिफ़ारिश (संस्तुति) करने वाला उम्मीद के लिये बमंज़िलए परो बाल (पंख व बाल के समान) होता है।36. दुनिया (संसार) वाले ऐसे सवारों के मानिन्द (समान) हैं जो सो रहे हैं और सफ़र (यात्रा) जारी है।37. दोस्तों (मित्रों) को खो देना ग़रीबुल वतनी (परदेस) है।38. मतलब (उद्घिशय) का हाथ से चला जाना ना अहल (कुपात्र) के आगे हाथ फैलाने से आसान है।39. थोड़ा देने से शर्माओ नहीं क्यों कि ख़ाली हाथ फेरना तो उस से भी गिरी हुई बात है।40. इफ्फ़त (संयम) फ़क्र (दरिद्रता) का ज़ेवर है और शुक्र (धन्यवाद) दौलत मन्दी की ज़ीनत (शोभा) है।41. अगर हसबे मंशा (इच्छानुसार) तुम्हारा काम न बन सके तो फिर जिस हालत में हो मग्न रहो।42. जाहिल (अनभिज्ञ, अशिक्षित, मूर्ख) को न पाओगे मगर या हद (सीमा) से आगे बढ़ा हुआ या उस से बहुत पीछे।43. जब अक़्ल (बुद्घि) बढ़ती है तो बातें कम हो जाती हैं।44. ज़माना (समय) जिस्मों (शरिरों) को कुहना व बोसीदा (पुराना एवं जीर्ण), और आर्ज़ओं (आकांछाओं) को तरो ताज़ा करता है। मौत (मृत्यु) को क़रीब और आर्ज़ूओं को दूर करता है। जो ज़माने (समय) से कुछ पा लेता है, वह भी रंज (दुख) सहता है, और जो खो देता है वह तो दुख झेलता ही है।45. जो लोगों का पेशवा (नेता) बनता है तो उसे दूसरों को तअलीम (शिक्षा) देने से पहले अपने को तअलीम (शिक्षा) देना चाहिये, और ज़बान से दर्स अख्लाक़ (सदाचार की शिक्षा) देने से पहले अपनी सीरत व क़र्दार (आचरण एवं चरित्र) से तअलीम (शिक्षा) देना चाहिये। और जो अपने नफ्स (आत्मा) की तअलीम व तादीब (शिक्षा दीक्षा) कर ले, वह दूसरों की तअलीम व तादीब (शिक्षा दीक्षा) करने वाले से ज़ियादा एह्तिराम (अधिक सम्मान) का मुस्तहक़ (पात्र) है।46. इंसान (मनुष्य) की हर सांस एक क़दम (पग) है जो उसे मौत की तरफ़ (मृत्यु की ओर) बढ़ाए लिये जा रहा है।47. जो चीज़ शुमार (गणना) में आए उसे ख़त्म (समाप्त) होना चाहिये, और जिसे आना चाहिये वह आकर रहेगा। 48. जब किसी काम में अच्छे बुरे की पहचान न रहे, तो आग़ाज़ (आरम्भ) को देख कर अंजाम (परिणाम) को पहचान लेना चाहिये।49. जब ज़ुरार इबने ज़ुमरते ज़बाई मुआविया के पास गए और मुआविया ने अमीरुल मैमिनीन (अ0 स0) के बारे में उन से सवाल किया तो उन्हों ने कहा कि मैं इस अम्र की शहादत देता हुं कि मैं ने बअज़ मौक़ों पर आप को देखा जब कि रात अपने दामने ज़ुल्मत (अंधकार के दामन) को फ़ैला चुकी थी तो आप मैहराबे इबादत में ईस्तादा (खड़े) रीशे मुबारक (डाढ़ी) को हाथों में पकड़े हुए मार गजी़दा (सांप का काटा हुआ) की तरह तड़प रहे थे, और गम रसीदा (दुखी) की तरह रो रहे थे और कह रहे थेः-----ऐ दुनिया। ऐ दुनिया। दूर हो मुझ से। क्या मेरे सामने अपने को लाती है। या मेरी दिलदाद व फ़रेफ्ता बन कर आई है। तेरा वह वक्त न आए (कि तू मुझे फ़रेब दे सके) भला यह क्यों कर हो सकता है। जा किसी और जो जुल दे, मुझे तेरी ख्वाहिश नहीं है, मैं तो तीन बार तुझे तलाक़ दे चुका हुं, कि जिस के बाद रुजूउ की गुंजाइश नहीं। तेरी ज़िन्दगी थोड़ी, तेरी अहम्मीयत (महत्ता) बहुत ही कम, और तेरी आर्ज़ू (आकांक्षा) ज़लील व पस्त (अपमानित व नीच) है। अफसोस। ज़ादे राह थोड़ा, रास्ता तवील (लम्बा) सफ़रे दूर व दराज़ और मंजिल सख्त (कठिन) है।इस रिवायत का ततिम्मा (अन्त) यह है कि जब मुआविया ने ज़ुरार की ज़बान से यह वाकिआ सुना तो उस की आंख़ें अश्क बार हो गईं और कहने लगा कि खुदा अबुल हसन पर रहम करे वह वाकिअन ऐसे ही थे। फिर ज़ुरार से मुख़ातिब हो कर कहा कि, ऐ ज़ुरार उन की मुफ़ारिक़त (जुदाई) में तुम्हारे रंजो अन्दोह (दुख एवं क्षोभ) की क्या हालत है। ज़ुरार ने कहा कि बस यह समझ लो कि मेरा ग़म उतना ही है जितना मां का होता है जिस की गोद में उस का इक़लौता बच्चा ज़िब्ह कर दिया जाए।50. एख शख्स ने अमीरुल मोमिनीन अलैहिस्सलाम से सवाल किया कि क्या हमारा उहले शाम से लड़ने के लिये जाना क़ज़ा व कदर से य़ा। तो आप ने एक तवील (लम्बा) जवाब दिया जिस का एक मुन्तख़ब हिस्सा (संकलिकत भाग) यह हैः-----खुदा तुम पर रहम करे तुम ने हतमी व लाज़िमी (दृढ़ एवं अनिवार्य) क़ज़ा व क़दर (अल्लाह ध्दारा निर्णीत व निश्चित) समझ लिया है कि (जिस के अंजाम देने पर हम मजबूर हैं), अगर ऐसा होता तो फिर न सवाब (पुण्य) का कोई सवाल पैदा होता न अज़ाब (दण्ड) का, न वअदे के कुछ मअनी (अर्थ) रहते न बईद के। खुदा वन्दे आलम ने तो बन्दों को खुद मुख्तार (स्वतंत्र) बना कर मामूर (नियुक्त) किया है, और अज़ाब (अपने दण्ड) से डराते हुए नहीं (निषिद्घ) किया है। उस ने सहल (सरल) व आसान तक़लीफ़ (कष्ट) दी है, और दुशवारियों (कठिनाइयों) से बचाए रखा है। वह थोड़े किये पर ज़ियादा अज्र (अधिक फल) देता है। उस की नाफरमानी इस लिये नहीं होती कि वह दब गया है, और न उस की इताअत इस लिये की जाती है कि उस ने मजबुर कर रखा है। उस ने पैगम्बरों को बतौरे तफ़रीह (मनोरंजन हेतु) नहीं भेजा, और बन्दों के लिये किताबें व फ़ायदा (ब्यर्थ) नहीं उतारी हैं, और न आसमान व ज़मीन और जो कुछ इन दोनों के दरमियान (मध्य) है, इन सब को बेकार पैदा किया है। तो यह उन लोगों का ख्याल (विचार) है जिन्हों ने कुफ्र (अधर्म) इख़तियार किया, तो अफ़सोस है उन पर जिन्हों ने कुफ्र (अधर्म) इख़तियार किया, आतशे जहत्रम (नर्क की आग) के अज़ाब (दण्ड) से।51. हिकमत (बुद्घि) की बात जहां कहीं हो, उसे हासिल करों, क्यों कि हिकमत (बुद्घि) मुनाफ़िक (द्घयवादी, कपटाचारी) के सोने में भी होती है, लेकिन जब तक उस (की ज़बान) से निकल कर मोमिन के सीने में पहुंच कर दूसरी हिकमतों के साथ बहल नहीं जाती तडपती रहती है।52. हिकमत (बुद्घि) मोमिन की ही गुमशुदा चीज़ है उसे हासिल (प्राप्त) करो चाहे मुनाफ़िक (द्घयवादी) से लेना पड़े।53. हर शख्स (ब्यक्ति) की की़मत (मूल्य) वह हुनर (गुण) है जो उस शख्स (ब्यक्ति) में है।54. तुम्हें ऐसी पांत बातों की हिदायत की जाती है कि अगर उन्हें हासिल (प्राप्त) करने के लिए ऊंटों को ऐड लगा कर हंकाओ, तो वह उसी क़ाबिल (योग्य) होगी। तम में से कोई शख्स (ब्यक्ति) अल्लाह के सिवा किसी से आस न लगाए, और उसके गुनाह (पाप) के अलावा किसी शय (वस्तु) से ख़ौफ़ (भय) न खाए, और अगर तुम में से किसी से कोई ऐसी बात पुछी जाए कि जिसे वह न जानता हो तो यह कहने में न शर्माए कि मैं नहीं जानता, और अगर कोई शख्स (ब्यक्ति) किसी बात को नहीं जानता, तो उस के सीखने में शर्माए नहीं, और सब्र व शिकेबाई (संतोष एवं धैर्य) इखतियार (धारण) करो क्यों कि सब्र (संतोष) को ईमान से वही निस्बत (सम्बंधी) है जो सर को बदन (शरीर) से होती है। अगर सर न हो तो बदन (शरीर) बेकार ब्यर्थ) है, यूं ही (इसी प्रकार) ईमान के साथ सब्र (संतोष) न हो तो ईमान में कोई खूबी (गुण) नहीं।55. एक शख्स (ब्यक्ति) ने आप की बहुत ज़ियादा तअरीफ़ (प्रशंसा) की हालांकि वह आप से अक़ीदत व अरादत (श्रध्दा व आस्था) न रखता था, तो आप ने फरमायाः जो तुम्हारी ज़बान पर है मैं उससे कम हूं, और जो तुम्हारे दिल में है उससे कम हूं।56. तलवार से बचे खुचे लोग ज़ियादा बाक़ी रहते हैं और उनकी नस्ल ज़ियादा होती है।57. जिस की ज़बान पर कभी यह जुमला (वाक्य) न आए कि, मैं नहीं जानता, तो वह चोट खाने की जगहों (स्थानों) पर चोट खा कर रहता है।58. बूढ़े की राय (परामर्श) मुझे जवान (युवक) की हिम्मत (साहस) से ज़ियादा पसन्द है।59. उस शख्स (ब्यक्ति) पर तअज्जुब (आश्चर्य) होता है जो तौबा (प्रायश्चित) की ग़ुंजाइश होते हुए मायूस (निराश हो जाए।60. अबू जअफ़र मुहम्मद इबने अलीयिल बाक़िर अलैहिस्सलाम ने रिवायत की है कि अमीरूल मोमिनीन (अ0 स0) ने फरमायाःदुनिया में अज़ाबे खुदा से दो चीज़ें बाइसे अमान (दैवी प्रकोप से सुरक्षा का साधन) थीं, अक उन में से उठ गई, मगर दूसरी तुम्हारे पास मौजूद हैःलिहाज़ा उसे मज़बूती से थामे रहो। वह अमान (शरण) जो उठा ली गई वह रसुलुल्लाह (स0) थे, और अपने अमान जो बाक़ी हैं वह तौबा व इसतिग़फ़ार (प्रायश्चित एवं क्षमा याचना) है जैसा कि अल्लाह सब्हानहू ने फरमाया, अल्लाह उन लोगों पर अज़ाब नहीं करेगा जब तक तुम उन लोगों में मौजूद हो, अल्लाह उन लोगों पर अज़ाब नहीं उतारेगा जब कि यह लोग तौबा वह उसतिग़प़ार कर रहे होंगे।61. जिस ने अपने और अप ने अल्लाह के मा बैन (मध्य) मुआमलात को ठीक रखा तो, अल्लाह उसके और लोगों के मुआमलात सुलझाये रखेगा, और जिस ने अपनी आखिरत (परलोक) के संवार लिया तो खुदा उसकी दुनिया भी संवार देगा, और जो खुद अपने आप के वअज़ व पन्द (प्रवचन व उपदेश) कर ले तो अल्लाह की तरफ़ से उसकी हिफ़ाज़त होती रहेगी।62. पूरा आलिम व दाना (सम्पूर्ण ज्ञानी एवं विध्दान) वह है जो लोगों को रहमते खुदा (खुदा की दया) से मायुस (निराश) और उसकी तरफ से हासिल (प्राप्त) होने वाली आसाइश व राहत (सुविधायें एवं विलास) से नाउम्मीद (निराश) न करें, और न उन्हें अल्लाह के अज़ाब (दण्ड) से बिलकुल मुत्मइन (निश्चिन्त) कर दे।63. यह दिल भी उसी तरह (प्रकार) उक्ता जाते हैं कि जिस तरह बदन (शरीर) उक्ता जाते हैं। लिहाज़ा (अतएव) उन के लिए लतीफ़ हकीमाना निकात (मृदुल बौद्घिक बिन्दु) तलाश करो।64. वह इल्म (ज्ञान) बहुत बे कद्र व कीमत (महत्वहीन व अमूल्यवान) जो ज़बान तक रह8 जाए, और वह इल्म (ज्ञान) बहुत बलन्द मर्तबा (उच्चकोटि का) है जो अज़ा व जवारेह (अंग अंग) से नमूदार (प्रकट) हो।65. तुम में से कोई शख्स (ब्यक्ति) यह न कहे कि, ए अल्लाह मैं तुझ से फितना व आज़माइश (उपद्रव एवं परीक्षण) से पनाह (शरण) चाहता हूं, इस लिए कि कोई शख्स (ब्यक्ति ) ऐसा नहीं जो फ़ितने (उपद्रव) की लपेट में न हो, बल्कि जो पनाह मांगे वह गुमराह करने वाले फ़ितनों से पनाह मांगे। क्यों कि अल्लाह सुब्हानहू का इर्शाद है, और इस बात के जाने रहो कि तुम्हारा माल और औलाद फ़ितना है। इससे मुराद (तात्पर्य) यह है कि अल्लाह लोगों को माल और औलाद के ज़रीए से आज़माता है ताकि यह ज़ाहिर (स्पष्ट) हो जाए कि कौन अपनी रोज़ी (जीविका) पर चीं बजबीं (असंतुष्ट) है और कौन अपनी क़िस्मत (भाग्य) पर शाकिर (कृतज्ञ) है। अगरचे (यघपि) अल्लाह सुब्हानहू उन को इतना जानता है कि वह खुद भी अपने को उतना नहीं जानते। लेकिन यह आज़माइश (परीक्षण) इस लिये है कि वह अफ़आल (कर्म) सामने आयें जिन के सवाब व अज़ाब (पुण्य व दण्ड़) के इस्तेहका़क़ (पात्रता) पैदा होता है। क्यों कि बअज़ औलादे नरीना ( पुत्र) चाहते हैं और लडकियों से कबीदा ख़ातिर (क्षुब्ध) होते हैं, और बअज़ माल बढ़ाने को पसन्द करते हैं और बअज़ शिकस्ता हाली (बदहाली) को बुरा समझते हैं। 66. आप से दर्याफ्त किया गया कि नेकी क्या चीज़ है। तो आप ने फरमायाःनेकी यह नहीं कि तुम्हारे माल व औलाद में फ़रावानी (बढ़ोतरी) हो जाए, बल्कि खुबी यह है कि तुम्हारा इल्म ज़ियादा और हिल्म (धैर्य) बड़ा हो और तुम अपने परवरदिगार की इबादत पर नाज़ (गर्व) कर सको। अब अगर अच्छा काम करो तो अल्लाह का शुक्र (धन्यवाद) बजा लाओ, और अगर किसी बुराई का इरतिकाब (कृत्य) करो तो तौबा व इसतिग़फ़ार (प्रायश्चित एवं क्षमा याचना) करो। और दुनिया में सिर्फ दो शख्सों (ब्यक्तियों) के लिये भलाई है। एक वह जो गुनाह (पाप) करे तौबा (प्रायश्चित) से उसकी तालाफ़ी (निराकरण) करे और दूसरा वह जो नेक कामों में तेज़ गाम हो।67. जो अमल (कर्म) तक़वा (संयम) के साथ अंजाम दिया जाए वह थोड़ा नहीं समझा जा सकता, और मकबूल (स्वीकार्य) होने वाला अमल थोड़ा क्यों कर हो सकता है।68. अंबिया (नबीयों) से ज़ियादा खुसुसियत (विशेषता) उन लोगों को हासिल (प्राप्त) होती है जो की लाई हुई चीज़ों का ज़ियादा इल्म (अधिक ज्ञान) रखते हों। फिर आप ने इस आयत की तिलावत फरमाई:... इब्राहीम से ज़ियादा खुसूसीयत (विशेषता) उन लोगों को थी जो उन के फ़रमांबर्दार (आज्ञापालक) थे, और अब इस नबी और ईमान लाने वालों को खुसूसीयत है। (फिर फ़रमाया) हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स0) का दोस्त वह है जो अल्लाह की इताअत करे, अगर चे उन से क़राबत (रिश्तेदारी) न रखता हो, और उन का दुश्मन वह है जो अल्लाह की ना फ़रमानी (अवज्ञा) करे, अगर चे नज़दीक़ी क़राबत रखता हो।69. एक खारिजी के मुतअल्लिक़ (बारे में) आप ने सुना कि वह नमाज़े शब पढ़ता है और कुरआन की तिलावत करता है तो आप ने फरमायाः यक़ीन (विश्वास) की हालत में सोना शक (शंका) की हालत में नमाज़ पढ़ने से बेहतर है।70. जब कोई हदीस सुनो तो उसे अक्ल में मेयार पर रख लो, सिर्फ नक्ले अलफ़ाज़ पर बस न करो क्यों कि इल्म (ज्ञान)के नक्ल करने वाले तो बहुत हैं और उसमें ग़ौरो फ़िक्र (चिन्तन एवं विचार) करने वाले कम हैं।71. एक शख्स को, इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन, (हम अल्लाह के है और हमें अल्लाह की तरफ़ पलटना है) कहते हुए सुना तो फ़रमाया:...हमारा यह कहना कि, हम अल्लाह के है, उस की मिल्क (संपत्ति) होने का एतिराफ़ (इक़रार) है, और यह कहना कि, हमें उसी की तरफ़ पलटना है, यह अपने लिये फ़ना (विनाश) का इक़रार है।72. कुछ लोगों ने आप के रु बरु (सामने) आप की मद्ह व सताइश (प्रशंसा) की तो फ़रमाया: ऐ अल्लाह तू मुझे मुझ से भी ज़ायादा जानता है, और इन लोगों से ज़ियादा अपने नफ्स को मैं पहचानता हूं। ऐ खुदा जो इन लोगों का ख़याल है तू हमें उस से बह्तर क़रार दे, और उन लग़ज़िशों (त्रुटियों) को बख्श (क्षमा कर दे) दे जिनका इन्हें इल्म (ज्ञान) नहीं।73. हाजत रवाई (परोपकार) तीन चीज़ों के बग़ैर पायदार (दृढ़) नहीं होती, उसे छोटा समझा जाए ताकि बड़ी करार पाए, उसे छिपाया जाए तारि वह खुद ब खूद (स्वतः) ज़ाहिर हो, और उसमें जल्दी की जाए ताकि वह खुशगवार हो।74. लोगों पर एक ऐसा ज़माना (समय) भी आयेगा जिस में वही मुकर्रबे बारगाह (निकटवर्ती सभासद) होगा जो लोगों के उयूब (दोष) बयान करने वाला हो, और वही खुश मज़ाक़ समझा जायेगा जो फ़ासिक व फ़ाजिर (खुल्लम खुल्ला पाप करने वाला और झुटा) हो और इन्साफ पसन्द (न्याय प्रिय) को कमज़ोर व नातवां (दुर्बल) समझा जायेगा। सदक़े को लोग ख़िसारा (घाटा) और सिलए रहिमी (सम्बंधियों की सहायता) को एहसान (उपकार) समझेंगे, और इबादत लोगों पर तफ़व्वुक़ (बडप्पन) जतलाने के लिए होगी। ऐसे ज़माने में हुकूमत का दारोमदार (शासन का आधार) औरतों (स्त्रियों) के मशविरे (परामर्श) नौख़ेज़ लड़कों (नवयुवकों) की कारफ़रमाई (कार्यरत होना) और ख्वाजा सराओं (अन्दर बाहर आने जाने वाले नौकरों चाकरों) की तदबीर व राय (उपाय व परामर्श) पर होगी।75. आप के जिस्म पर एक बोसीदा (फटा हुआ) और पैवन्ददार जामा (वस्त्र) देखा गया तो आफ से इसके बारे में कहा गया, आप (अ0 स0) ने फरमायाःइससे दिल मुतवाज़े (हृदय सुशील) और नफ्स (मन) राम होता है और मोमिन इस की तअस्सी (अनुसरण) करते है। दुनिया व आखिरत (लोक व परलोक) आपस में दो नासाज़गार (प्रतिकूल) दुश्मन और दो जुदा जुदा रास्ते (पृथक प्रथक मार्ग) हैं। चुनांचे जो दुनिया को चाहेगा और उस से दिल लगायेगा वह आख़िरत (परलोक) से बैर और दुश्मनी रखेगा। वह दोनों बमंज़िलए मश्रिक़ो व मगरिब (पूर्व एवं पश्चिम के समान) के हैं और इन दोनों सम्तों (दिशाओ) के दरमियान (मध्य) चलने वाला जब भी एक से क़रीब होगा तो दूसरे से दूर होना पड़ेगा, फिर इन दोनों का रिश्ता (सम्बंध) ऐसा ही है जैसा दो सौतों (सवकनों) का होता है।76. नौफ़ इब्ने फ़ज़ालए बकाली कहते है कि मैं ने एक शब (रात) अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) को देखा की वह फ़र्श ख्वाब (शयन शैया) से उठे, एक नज़र (दृष्टि) सितारों पर ड़ाली और फिर फ़रमायाःऐ नौफ़ सोते हो या जाग रहे हो, मैं ने कहा कि, या अमीरल मोमिनीन (अ0 स0) जाग रहा हूं। फ़रमाया ऐ नौफ़ खुशानसीब (अहो भाग्य) उन के कि जिन्हों ने दुनिया में ज़ह्द (संयम) इख़तियार (धारण) किया और इमातन (अपने पूर्ण अस्तित्व से) आखिरत (परलोक) की तरफ़ मुतवज्जह रहे। यह वह लोग है जिन्हों ने ज़मीन को फ़र्श, मिट्टी को बिस्तर, और पानी को शर्बते खुशगवार (स्वादिष्ट शर्बत) क़रार दिया, कुरआन को सीने से लगाया, और दुआ को सिपर (ढ़ाल) बनाया, फिर हज़रते मसीह (ईसा) की तरह (भांति) दामन झाड़ कर दुनिया से अलग थलग हो गए।ऐ नौफ़ दाईद अलैहिस्सलाम रात के ऐसे ही हिस्से में उठे और फ़रमाया कि यह वह घड़ी है कि जिस में बन्दा जो भी दुआ मांगे मुस्तजाब (पूरी) होगी, सिवा उस शख्स (व्यक्ति) के जो सरकारी टैक्स वसूल करने वाला, या ढ़ोल ताशा बजाने वाला हो। 77. अल्लाह ने चन्द फ़रायज़ (कुछ कर्तवय) तुम पर आयद (लागू) किये है उन्हें ज़ाए (बर्बाद) न करो, और तुम्हारे हुदूदे कार (कार्य सीमायें) मुक़र्रर (निर्धारित) कर दिया है उस के ख़िलाफ़ वर्ज़ी (अवज्ञा) न करो, और जिन चीज़ों का उस ने हुक्म (आदेश) बयान नहीं किया तो उन्हें भूले से नहीं छोड़ दिया, लिहाज़ा ख्वाह मख्नाह (चाहे अनचाहे) उन्हें जानने की कोशिश न करो।78. जो लोग अपनी दुनिया संवारने के लिये दीन (धर्म) से हाथ उठा लेते हैं, तो खुदा उस दुनियवी फ़ायदे (सांसारिक लाभ) से कहीं ज़ियादा उन के लिये नुक्सान (क्षति) की सूरतें (स्थितियां) पैदा कर देता है।79. बहुत से पढ़े लिखों को (दीन से) बे ख़बरी (अज्ञान) तबाह कर देता है और जो इल्म (ज्ञान) उन के पास होता है उन्हें ज़रा भी फ़ायदा नहीं पंहुचाता।80. इस इन्सान (मनुष्य) से भी ज़ियादा अजीब (अधिक विचित्र) गोश्त (मांस) का एक लोथड़ा है जो उस की एक रग के साथ आवेज़ा कर (टांग, लटका) दिया गया है और वह दिल (हृदय) है जिस में हिक्मत व दानाई के ज़खीरे (बुद्घि क्षान के भण्डार) है, और इस के बरखिलाफ़ (विपरीत) सिफ़तें (गुण) भी पाई जाती हैं। अगर उसे उम्मीद (आशा) की झलक नज़र आती हो तो तम्अ (लालसा, लालच) उसे ज़िल्लत (अपयश) में मुब्तला (ग्रस्त) करती है और अगर तम्अ (लालसा) उभरती है तो उसे हिर्स (लोलुप्ता) से तबाह व बर्बाद (नष्ट) कर देती है। अगर नाउम्मीदी (निराशा) उस पर छा जाती है तो हसरत व अन्दोह (क्रोध) उस पर तारी (वयाप्त) होता है तो ग़मो गुस्सा (दुख एवं आक़ोश) शिद्दत (उत्तेजना) इख़तियार (धारण) कर लेता है और अगर खुश व खुशनूद (प्रसन्न व हर्षित) होता है तो हिफ्ज़े मातकद्दम (पूर्व रक्षा) को भूल जाता है, और अगर अचानक (अकस्मात) उस पर खौफ़ तारी (भय ग्रस्त) होता है तो फ़िक्र व अन्देशा (चिन्ता व सन्देह) दूसरे क़िस्म (प्रकार) के तसव्वुरात (कल्पनाओं) सो उसे रोक देता है। अगर अमन व अमान (सुख शान्ति) का दौर दौरा होता है तो ग़फलत (अचेतना) उस पर क़बज़ा कर लेती है, और अगर मैलो दौलत हासिल (प्राप्त) कर लेता है तो दौलत मन्दी (धनाढ़यता) उसे सर्कश (उग्र) बना देती है, और अगर उस पर कोई मुसीबत (आपदा) पड़ती है तो बेताबी व बेकरारी उसे रुसवा (अपमानित) कर देती है, और अगर फ़क्र व फ़ाके (निर्धनता व ब्रत) की तकलीफ़ (कष्ट) में मुब्तला (ग्रस्त) हो तो मुसीबत व इब्तिला (आपत्ति एवं विपत्ति) उसे जकड़ लेती है। और अगर भूक उस पर ग़लबा करती है तो ना तवानी (दुर्बलता) उसे उठने नहीं देती, और अगर शिकम पुरी (पेट भराई) बढ़ जाती है तो यह शिकम पुरी (पेट भराई) उस के लिए कर्ब व अज़ीयत (ब्याकुलता एवं क्लेश) का बाइस (कारण) होती है। हर कोताही (प्रत्येक शिथिलता) उस के नुक़सान रसां (हानिकारक) और हद से ज़ियादी उस के लिए तबाहकुन (विनाश कारक) होती है।81. हम (अहलेबैत) ही वह नुक्तए एतिदाल (संतुलन बिन्दु) हैं कि पीछे रह जाने वाले को उस से आकर मिलनी है, और आगे बढ़ जाने वाले को उस की तरफ़ पलट कर आना है।82. हुक्में खुदा (खुदा के आदेश) का निफ़ाज़ (क्रियांवन) वही कर सकता है जो हक़ (सत्य यथार्थ) के मुआमले में नर्मी न बर्ते, अज्ज़ व कमज़ोरी (असमर्थता एवं निर्बलता) का इज़हार (प्रदर्शन) न करे और हिर्स व तमअ (लोभ व लालसा) के पीछे न लग जाए।83. सहल इबने हुनैफ़ अंसारी हजरत (अ0 स0) को सब लोगों में जियादा अज़ीज़ (अधिक प्रिय) थे। यह जब आप के साथ सिफ्फ़ीन से पलट कर कूफ़े पहुंचे तो इन्तिकाल (देहान्त) फ़रमा गए जिस पर हज़रत (अ0 स0) ने फरमायाः अगर पहाड़ भी मुझे दोस्त रखेगा तो वह भी रेज़ा रेज़ा (कण कण) हो जायेगा।सैयिद रज़ी कहते हैं कि चुंकि आप के दोस्त की आज़माइश (परीक्षा) कडी और सख्त होती है इस लिए मुसीबतें (आपत्तियां) उस की तरफ़ (ओर) लपक कर बढ़ती हैं। और ऐसी आज़माइश (परीक्षा) उन्हीं की ही होती है जो पर्हेज़गार (संयमी) नेकूकार (सदाचारी), मन्तखब (चयनित) व बरगुज़ीदा (सिद्घ) होते हैं। और ऐसा ही आप का दूसरा इर्शाद (कथन) है।84. जो हम अहलेबैत (अ0 स0) से मुहब्बत करे उसे जमए फ़क्र (दरिद्रता का वस्त्र) पहनने के लिए आमादा (तैयार) रहना चाहिए।85. अक्ल (बुद्घि) से बढ़ कर कोई माल सूदमन्द (लाभप्रद धन) और बुद्घि बीनी (स्वाभिमान) से बढ़ कर कोई तनहाई (वहशत नाक व भयावह एकान्त) नहीं, और तदबीर (उपाय) से बढ़ कर कोई अक्ल (बुद्घि) की बात नहीं, और कोई बुज़ुर्गी (प्रतिष्ठा) तकवा (संयम) के मिस्ल (समान) नहीं, और खुश खुल्की (सदब्यवहार) से बेहतर कोई साथी, और अदब के मानिन्द (साहित्य के समान) कोई मीरास नहीं, और तौफ़ीक (सामर्थ्य) के मानिन्द कोई पेशरौ (अगुवा) और अअमाले ख़ैर (सुकर्म) से बढ़ कर कोई तिजारत (ब्यापार) नहीं, और सवाब (पुण्य) का ऐसा कोई नफअ (लाभ) नहीं और हराम की तरफ़ बे रग़बती (अवरुचि) से बढ़ कर कोई ज़हद (संयम) और तफ़क्कुर व पेश बीनी (चिन्तन व पूर्व दर्शिता) से बढ़ कर कोई इल्म (ज्ञान) नहीं, और अदाए फ़र्ज़ (कर्तब्य परायणता) के मानिन्द (समान) कोई इबादत, और हया व सब्र (मर्यादा एवं धैर्य) से बढ़ कर कोई इमान नहीं, और फ़रोतनी (विनम्रता) से बढ़ कर कोई सरफ़राज़ी (यश) और इल्म के मानिन्द (ज्ञान के समान) कोई बुज़ुर्गी व शराफत (प्रतिष्ठा व सम्मान) नहीं। इल्म के मानिन्द (ज्ञान के समान) कोई इज़्ज़त (आदर) और मशविरे से मज़बूत (परामर्श से दृढ़) कोई पुश्त पनाह (संरक्षक) नहीं।86. जब दुनिया और अहले दुनिया में नेकी का चलन हो, और फिर कोई शख्स (ब्यक्ति) किसी ऐसे शख्स से कि जिस से रुसवाई (अपमान) की कोई बात ज़ाहिर (प्रकट) नहीं हुई सूए ज़न (दुर्भावना) रखे तो उस ने उस पर ज़ुल्म व ज़ियादती की, और जब दुनिया और अहले दुनिया पर शर व फ़साद (दुष्कृत्य व उपद्रव) का ग़लबा (अधिपत्य) हो और फिर कोई शख्स (ब्यक्ति) किसी दूसरे शख्स (ब्यक्ति) से हुस्त्रे ज़न (सदभावना) रखे तो उस ने खुद ङी अपने को खतरे में ड़ाला।87. अमीरल मोमिनीन (अ0 स0) से दर्याफ्त किया गया कि आप का हाल कैसा है। तो आफ ने फरमाया किःउसका हाल क्या होगा जिसे ज़िन्दगी मौत की तरफ़ लिये जा रही हो, और जिसकी सेहत (स्वास्थ्य) बीमारी का पेश ख़ैमा (भूमिका) हो, और जिसे अपनी पनाह गाह (शरण स्थल) से गिरफ्त में ले लिया जाए।88. कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्हें नेमतें (वर्दान) दे कर रफ़्ता रफ़्ता (शनै: शनै:) अज़ाब का मुस्तहक़ (दण्ड का पात्र) बनाया जाता है, और कितने ही लोग ऐसे हैं जो अल्लाह की पर्दापोशी (गोपनीयता) से धोका खाए हुए हैं, और अपने बारे में अच्छा अल्फ़ाज़ (शब्द) सुन कर फ़रेब (धोके) में पड गए हैं, और मोहलत देने से ज़ियादा अल्लाह की जानिब (ओर) से कोई बड़ी आज़माइश (परीक्षा) नहीं है।89. मेरे बारे (विष्य) में दो क़िस्म (प्रकार) के लोग तबाह व बर्बाद हुए हैं। एक वह चाहने वाले जो हद (सीमा) से बढ़ जाए, और एक वह दुश्मनी रखने वाला जो अदावत (वैमनस्यता) रखे।90. मैक़े (अवसर) को हाथ से जाने देना रंज व अन्दोह का बाइस (दुख व क्षोभ का कारण) होता है।91. दुनिया की मिसाल सांप की सी है जो छूने में नर्म मालूम होता है मगर उसके अन्दर ज़हरे हलाहल (घातक विष) भरा होता है। फ़रेब खुर्दा जाहिल (छलित मूर्ख) उस की तरफ़ खिंचता है, और होशमन्द (बुद्घिमान) व दाना (समझदार) उस से बच कर रहता है।92. हज़रत से कुरैश के बारे में सवाल किया गया, तो आप ने फ़रमाया कि, क़बीलए बनी मख़ज़ूम कुरैश का महकता हुआ फूल हैं। उन के मर्दों से गुफतगू (वार्तालाप) औऱ औरतों (स्त्रियों) से शादी पसंदीदा है। और बनी अब्दे शम्स दूर अन्देश (दूरदर्शी) और पीछे की ओझल चीज़ों की पूरी रोक थाम करने वाले हैं। लेकिन हम (बनी हाशिम) तो जो हमारे हाथ में होता है उसे सर्फ़ (ब्यय) कर डालते हैं, और मौत आने पर जान देते हैं बड़े जवां मर्द (वीर) होते हैं, और यह बनी अब्द् शम्स गिन्ती में ज़ियादा, हीलेबाज़ और बदसूरत (कुरुप) होते हैं और हम खुश गुफ्तार खैर ख्वाह और खूबसूरत (अच्छी बातें करने वाले, शुभचिन्तक और सुन्दर) होते हैं।93. उन दो क़िस्मों के अमलों (दोनों प्रकार के कर्मों) में कितना फ़र्क़ (अन्तर) है, एक वह अमल (कर्म) जिस की लज़्ज़त (स्वाद) मिट जाए लेकिन उस का वबाल (कष्ट) रह जाए, और एक वह जिस की सख़्ती (कठिनाई) ख़त्म हो जाए लेकिन उस का अज्र व सवाब (पुरस्कार व पुण्य) बाक़ी रहे।94. हज़रत एक जनाज़े (शव) के पीछे जारहे थे कि एक शख्स (ब्यक्ति) के हंसने की आवाज़ सुनी, जिस पर आप ने फ़रमायाःगोया (जैसे) इस दुनिया में मौत हमारे अलावा दूसरों के लिए लिखी गई है, और गोया यह हक़ (मौत) दूसरों ही पर लाज़िम (अनिवार्य) है, और गोया जिन मरने वालों को हम देखते हैं वह मुसाफिर हैं जो अनक़रीब हमारी तरफ़ पलट आयेंगे। इधर हम उन्हें कबरों में उतारते हैं उधर उनका तर्का खाने लगते हैं गोया उनके बाद हम हमेशा रहने वाले हैं। फिर यह कि हमने हर पन्द व नसीहत (प्रवचन व उपदेश) करने वाले को वह मर्द हो या औरत भुला दिया है, और हर आफ़त का निशाना बन गए हैं।95. खुशा नसीब (अहोभाग्य) उस के कि जिस ने अपने मक़ाम (स्थान) पर फ़रोतनी (विनम्रता) इख़तियार (धारण) की, जिसकी कमाई पाको पाकीज़ा, नीयत नेक और खसलत व आदत (स्वभाव एवं प्रकृत्ति) पसन्दीदा रही, जिस ने अपनी ज़रुरत (आवश्यकता) से बचा हुआ माल (धन) खुदा की राह में सर्फ़ किया, बेकार बातों (ब्यर्थ की बातों) से अपनी जबान को रोक लिया, मर्दुम आज़ारी (लोगों को कष्ट देने से) कनाराकश (अलग) रहा, सुत्रत उसे नागवार न हुई और बिदअत की तरफ़ मंसूब न हुआ।96. औरत का ग़ैरत (स्वाभिमान) करना क़ुफ़्र है, और मर्द का ग़यूर (स्वाभिमानी) होना ईमान है।मतलब यह है कि जब मर्द को चार औरतें तर्क करने की इजाज़त है तो औरत का सौत ग़वारा न करना हलाले खुदा से नागवारी का इज़हार और एक तरह से हलाल को हराम समझना है, और यह कुफ़्र के हमपाया (समकक्ष) है, और चूंकि औरत के लिये मुतअद्दिद शौहर (अनेक पति) करना जायज़ नहीं है इस लिये मर्द का इशतिराक (भागीदारी) गवारा न करना उस की ग़ैरत (स्वाभिमान) का तकाज़ा (वांछना) और हरामे खुदा को हराम समझना और यह ईमान के मुरादिफ़ (पर्याय) है।मर्द व औरत में यह तफ़रीक़ (अन्तर) इस लिये है ताकि तौलीद व बक़ाए नस्ले इन्सानी (उत्पत्ति एवं मानव जाति की स्थिरता) में कोई रोक पैदा न हो क्यों कि यह मक़सद (उद्देश्य) उसी सूरत में बदरजए अतम (पूर्ण रुपेण) संतानें हासिल हो सकती हैं जब मर्द के लिये तअद्दुदे अज़वाज (अनेक पत्नी)की इजाज़त हो क्यों कि एक मर्द से एक ही ज़माने (समय) में मुतअद्दिद औलादें हो सकती हैं और औरत (स्त्री) इस से मअज़ूर व क़ासिर (असमर्थ) है कि वह मुतअद्दिद मर्दों (अनेक पतियों) के अक़्द में आने से मुतअद्दिद औलादें (अनेक सन्तानें) पैदा कर सकें, क्यों कि ज़मानए हमल (गर्भकाल) में दोबारा हमल (पुनःगर्भ) का सवाल ही पैदा नहीं होता। इस के अलावा उस क् ऊपर ऐसे हालात (परिस्तितियां) भी तारी (ब्याप्त) होते रहते हैं कि मर्द को उस से कनाराकशी इख़्तियार (पृथकता ग्रहण) करनी पड़ती है। चुनांचे हैज़ व रिज़ाअत (मासिक धर्म व दूध पिलान) का ज़माना (अवधि) ऐसा ही होता है जिस से तौलीद का सिलसिला (उत्पत्ति का क्रम) रुक जाता है और अगर मुतअद्दिद अज़वाज़ (अनेक पत्नियां) होंगी तो सिलसिलए तौलीद (उत्पत्ति का क्रम) जारी रह सकता है। क्यों कि मुतअद्दिद बीवियों (अनेक पत्नियों) में से कोई न कोई बीवी (पत्नि) इन अवारिज़ (ब्याविधानों) से ख़ाली होगी जिस से नस्ले इंसानी को तरख्की (मानव जाति की प्रगति) का मक़सद हासिल (उद्देश्य प्राप्त) होता रहेगा, क्यों कि मर्द के लिये ऐसे मवाक़े पैदा नहीं होते कि जो सिलसिलए तौलीद (उत्पत्ति क्रम) में रोक बन सकें। इस लिये खुदा वन्दे आलम ने मर्दों (पुरुषों) के लिये तअद्दुदे अज़वाज (अनेक पत्नियों) को जायज़ करार दिया है और औरतों (स्त्रियों) के लिये यह सूरत (स्थित) जायज़ नहीं रखी, की वह वक्ते वाहिद (एक ही समय) में मुतअद्दिद मर्दों (अनेक पतियों) के अक्द में आये। क्यों कि एक औरत का कई शौहर (पति) करना ग़ैरत व शराफ़त (मान मर्यादा) के भी मनाफ़ी (प्रतिकूल) है और इस के अलावा ऐसी सूरत (स्थिति) में नसब की भी तमीज़ (वंश की भी पहचान) न हो सकेगी कि कौन किस का सुल्ब (गोत्र) से है। चुनांचे इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से एक शक्स (ब्यक्ति) ने दर्याफ़्त किया कि क्या वजह है कि मर्द एक वक्त में चार बिवियां (पत्नियां) तक कर सकता है और औरत एक वक्त में एक मर्द से ज़ियादा शौहर (अधिक पति) नहीं कर सकती। हज़रत ने फ़रमाया कि जब मर्द मुतअद्दिद औरतों (अनेक स्त्रियों) से निकाह करेगा तो औलाद बहर सूरत उसी की तरफ़ मंसूब होगी और अगर औरत के दो या दो से ज़ियादा शौहर होंगे तो यह मअलूम न हो सकेगा कि कौन किस की औलाद और किस शौहर से है, लिहाज़ा ऐसी सूरत में नसब मुशतबह (गोत्र सन्देहजनक) हो कर रह जायेगा, और सहीह बाप (वास्तविक पिता) की तअयीन (निर्धारण) न हो सकेगा, और यह बात उस मौलूद (जन्मित शिसु) के मफ़ाद (हित) के भी ख़िलाफ़ (प्रतिकूल) होगा, क्यों कि कोई भी बहैसियते बाप के उस की तर्बीयत (भरण पोषण) की तरफ़ मुतवज्जह न होगा, जिस से वह अख़लाक़ व आदाब (शिष्टाचार एवं सभ्यता) से बे बहरा (अनभिज्ञ) हो और तअलीम व तर्बीयत (शिक्षा दीक्षा) से महरुम (वंचित) हो कर रह जायेगा।97. मैं इसलाम की ऐसी सहीह तअरीफ़ (उचित परिभाषा) बयान करता हूं जो मुझसे पहले किसी ने बयान नहीं की, इसलाम सरे तसलीम खम करना (अभिवादन हेतु शीश नवाना) है, और सरे तसलीम (अभिवादनार्थ शीश) झुकाना यक़ीन (द्रढ़ विश्वास) है, और यक़ीन तस्दीक़ (विश्वास पुष्टि) है, और तस्दीक़ एतिराफ़ (पुष्टि स्वीकार्य) है, और एतिराफ़ (स्वीकारना) फ़र्ज़ की बज़ाआवरी (कर्तब्य परायणता) है, और फ़र्ज़ की बज़ाआवरी अमल (कर्तब्य परायणता कर्म) है।98. मुझे तअज्जुब (आश्चर्य) होता है बख़ील (कंजूस) पर कि वह जिस फ़क्र व नादारी (निर्धनता व दरिद्रता) से भागना चाहता है उस की तरफ़ तेज़ी से बढ़ता है, और जिस सर्वत (समृद्घि) व खुशहाली का तालिब (इच्छुक) होता है वही उसके हाथ से निकल जाती है। वह दुनियां में फ़क़ीरों (भिक्षुकों) की सी ज़िन्दगी बसर करता है और आखिरत (परलोक) में धौलतमन्दों (धनाढ़यों) का सा उस से मुहासिबा (हिसाब) होगा। और मुझे तअज्जुब होता है मुतकब्बिर व मगरुर (अहंकारी व अभिमानी) पर कि जो कल एक नुतफ़ा (वीर्य) था और कल को मुर्दार (मृत पशु के समान) होगा, और मुछे तअज्जुब (आश्चर्य) है कि उस पर जो अल्लाह की पैदा की हुई काइनात (विश्व) को देखता है और फ़िर उसके वजूद (आस्तित्व) में शक (शंका) करता है और तअज्जुब (आश्चर्य) है उस पर जो मरने वालों को देखता है और फिर मौत को भूले हुए हैं। और तअज्जुब (आश्चर्य) है उस पर जो पहली पैदाइश (प्रथम उतपत्ति) को देखता है और फिर दोबारा उठाए जाने से इन्कार करता है, और तअज्जुब (आश्चर्य) है उस पर जो सराये फ़ानी (नाश्वर सराय) को आबाद करता है और मंजि़ले जाबिदानी (आविनाशी गंतब्य) को छोड़ देता है।99. जो अमल (कर्म) में कोताही (शिथिलता) करता है वह रंज व अन्दोह (दुख व क्षोभ) में मुब्तला (ग्रस्त) रहता है, और जिस के माल व जान में अल्लाह का कुछ हिस्सा न हो अल्लाह को ऐसे की कोई ज़रुरत नहीं।100. शुरुउ सर्दी (सर्दी के आरम्भ) में सर्दी से अहतियात करो (सतर्क रहो) और आखिर (अन्त) में उसका ख़ैर मक़दम (स्वागत) करो, क्यों कि सर्दी जिस्मों में वही करती है जो वह दरख़्तों (वृक्षों) में करती है कि इब्तिदा (आरम्भ) में दरख़्तों (वृक्षों) को झुलस देती है और इन्तिहा (अन्त) में सर सब्ज़ो शादाब (हरा भरा) करती है।101. अल्लाह की अज़मत (प्रतिष्ठा) का एहसास तुम्हारी नज़रों में काइनात (विश्व) को हक़ीर व पस्त (तुच्छ एवं नीच) कर दे।102. सिफ़्फीन से पलटते हुए क़ूफ़े से बाहर क़ब्रिस्तान पर नज़र पड़ी तो फरमायाःऐ वहशत अफ़ज़ा (भयावह) घरों, उजड़े मकानों और अंधेरी क़ब्रों के रहने वालों। ऐख़ाक़ नशीनों (भूमी वासीयों)। ऐ आलमे गुर्बत के साकिनों (परदेस निवासियों)। ऐ तन्हाई (एकान्त) और उलझन में बसर (ब्यतीत) करने वालों। तुम तेज़रौ (दृतगामी) हो, जो हम से आगे बढ़ गए हो और हम तुम्हारे नक़्शे क़दम (पद चिन्हों) पर चल कर तुम से मिलना चाहते हैं। अब सूरत (स्थिति) यह है कि घरों में दूसरे बस गए हैं, बीवियों (पत्नियों) ये औरों ने निकाह कर लिये हैं, और तुम्हारा मालो अस्बाब तक़सीम (विभाजित) हो चुका है...यह तो हमारे यहां की ख़बर (समाचार) है, अब तुम कहो तुम्हारे यहां की क्या ख़बर है। फिर हज़रत अपने असहाब की तरफ़ मुतवज्जह हुए और फ़रमाया, अगर इन्हें बात करने की इजाज़त दी जाए तो यह तुम्हें बतायेंगे कि बेहतरीन ज़ादे राह तक़वा है।103. एक शख्स (ब्यक्ति) को दुनिया की बुराई करते हुए सुना तो फ़रमायाःऐ दुनिया की बुराई करने वाले। उसके फ़रेब (कपट) में मुब्तला (ग्रस्त) होने वाले। और उस की गलत सलत बातों के धोखे में आने वाले। तुम उस पर गिर्वीदा (आसक्त) भी होते हो और फिर उस की मज़्म्मत (निन्दा) भी करते हो। क्या तुम दुनिया को मुजरिम (अपराधी) ठहराने का हक़ (अधिकार) रखते हो।या वह तुम्हें मुजरिम (अपराधी) ठहराये तो हक़ बजानिब (उचित) है।दुनिया ने कब तुम्हारे होशो हवास (ज्ञानेन्द्रियों) को सल्ब (वशीभूत) किये और किस बात से फ़रेब (धोका) दिया। क्या हलाक़त व कुहनगी (मृत्यु और पुरातत्व) से। तुम्हारे बाप दादा के बेजान हो कर गिरने से, या मिट्टी के नीचे से तुम्हारी मांओं (माताओं) की ख़्वाबगाहों (शयनकक्षों) से। कितनी तुम से बीमारो (रोगियों) की देख भाल की, और कितनी दफ़आ खुद तीमारदारी (उपचार) की उस सुब्ह को कि जब न दवा कारगर होती नज़र आती थी और न तुम्हारा रोना धोना उन के लिये कुछ मुफ़ीद (हितकर) था, तुम उन के लिए शिफ़ा के ख़्वाहिशमन्द (स्वास्थ्य लाभ के इच्छुक) थे, और तबीबों (चिकित्सकों) से दवा दारु पूछते फिरते थे, उन में से किसी एक के लिए भी तुम्हारा अन्देशा (संदेह व भय) फ़ायदामन्द (लाभप्रद) साबित (सिद्घ) न हो सका, और तुम्हारा मक़सद (उद्देश्य) न हासिल हुआ, और अपनी चारा साज़ी (उपचार) से तुम मौत (मृत्यु) को उस बीमार से न हटा सके। तो दुनिया ने तो उस के पर्दे में खुद तुम्हारा अंजाम और उस के हलाक़ होने से खुद तुम्हारी हलाक़त का नक़्शा तुम्हें दिखा दिया। बिला शुब्हा (निस्संदेह) दुनिया उस शख्स के लिये जो बावर (विश्वास) करे, सच्चाई का घर है, और जो उस की इन बातों को समझे उस के लिये अम्नो आफ़ियत (शांति एवं कुशलता) की मंज़िल है और उस से ज़ादे राह (रास्ते का सामान) हासिल कर ले, उस के लिये दौलतमन्दी (समृद्घि) की मंज़िल है और जो उस से नसीहत हासिल करे उस के लिये वअज़ व नसीहत (प्रवचन व उपदेश) का महल (स्थान) है। वह दोस्ताने खुदा (परमात्मा के मित्रों) के लिये इबादत (उपासना) की जगह, अल्लाह के फ़रिशतों के लिये नमाज़ पढ़ने का मक़ाम (स्थान) है, वहये इलाही की मंज़िल और औलिया अल्लाह की तिजारत गाह (बयापार केन्द्र) है। उन्हों ने इस में फ़ज़्लो रहमत का सौदा किया और उस में रहते हुए जत्रत को फ़ायदे में (लाभ स्वरुप) हासिल किया, तो अब कौन है जो दुनिया की बुराई करे, जब कि उस ने अपने जुदा (पृथक) होने की इत्तिलाअ (सूचना) दे दी है, और अपनी अलायहदगी (पृथकता) का एलान (घोषणा) कर दिया है और अपने बसने वालों के मौत की खबर (सूचना) दे दी है। चुनांचे उस ने अपनी इब्तिला से इब्तिला का पता दिया है और अपनी मसर्रतों (खुशियों) से आख़िरत (परलोक) की मसर्रतों का शौक़ दिलाया है। वह रग़बत (लोभ) दिलाने और ड़राने, ख़ौफ़ज़दा (भयभीत) करने और मुतनब्बेह (सचेत) करने के लिये शाम को अम्नो आफ़ियत (शांति एवं कुशलता) का और सुब्ह को दर्दो अन्दोह (दुख एवं क्षोभ) का पैग़ाम (सन्देश) ले कर आती है। तो जिन लोगों ने शर्मसार (लज्जित) हो कर सुब्ह की वह उस की बुराई करने लगे, और दूसरे लोग क़ियामत (प्रलय) के दिन उस की तअरिफञ (प्रशंसा) करेंगे कि दुनिया ने उन्हें आख़िरत (परलोक) की याद दिलाई तो उन्हों ने याद रखा, और उस ने उन्हें ख़बर (सूचना) दी तो उन्हों ने तस्दीक़ (पुष्टि) की और उस ने उन्हें पन्दो नसीहत (प्रवचन व उपदेश) की तो उन्हों ने नसीहत हासिल की (उपदेश स्वीकार किया)।104. अल्लाह का एक फरिश्ता हर रोज़ (प्रतिदिन) यह निदा (घोषणा) करता है कि मौत के लिए औलाद पैदा करो, बर्बाद होने के लिए जमअ करो, और तबाह होने के लिए इमारतें (भवन) खड़ी करो।105. दुनियां अस्ल मंज़िले क़रार वास्तविक एवं स्थित गंतव्य) के लिये एक ग़ुज़रगाह (मार्ग) है। इसमें दो क़िस्म (प्रकार) के लोग हैं, एक वह जिन्होंने अपने नफ़्स (आत्मा) को बेच कर हलाक (बध) कर ड़ाला, और , एक वह जिन्होंने अपने नफ़्स (आत्मा) को ख़रीद कर आज़ाद (स्वतंत्र) कर दिया।106. दोस्त (मित्र) उस वक्त तक दोस्त (मित्र) नहीं समझा जा सकता जब तक कि वह अपने भाई की तीन मौक़ों (अवसरों) पर निगहदाशत (संरक्षण) न करे, मुसीबत के मौक़े पर, उस के पसे पुश्त (पीठ पीछे) और उस के मरने के बाद।107. जिस शख्स (ब्यक्ति) को चार चीज़ें अता (प्रदान) हुई हैं वह चार चीज़ों से महरूम (वंचित) नहीं रहताः..... जो दुआ करे वह क़बूलियत (स्वीक्रति) से महरूम (वंचित) नहीं होता, जिसे तौबा (प्रायश्चित) की तौफ़ीक़ (सामर्थ्य) हो वह मक़बूलियत (स्वीकृति) से नाउम्मीद (निराश) नहीं होता, जिसे इसतेग़फ़ार (प्रायश्चित) नसीब हो वह मग़फिरत (क्षमा) से महरूम (वंचित) नहीं होता, और जो शुक्र करे वह इज़ाफ़े (बुद्घि) से महरूम (वंचित) नहीं होता। और इस की तस्दीक़ (पिष्टि) कुरआने मजीद से होती है। चिनांचे इर्शादे इलाही है, तुम मुझ से दुआ मांगो मैं तुम्हारी दुआ क़बूल (स्वीकार) करूँगा। और इसतेग़फ़ार (प्रायश्चित) के मुतअल्लिक (संबंध) में इर्शाद फ़रमाया है, जो शख्स (ब्यक्ति) कोई बुरा अमल (बुरा कार्य) करे न अपने नफ़्स (आत्मा) पर ज़ुल्म (अत्याचार) करे फिर अल्लाह से मग़फिरत (क्षमा) की दुआ मांगे तो वह अल्लाह को बड़ा बख़्शने वाला और रहम (दया) करने वाला पायेगा। और शुक्र के बारे में प़रमाया है, अगर तुम शुक्र करोगे तो मैं तुम पर (नेमत) में इज़ाफ़ा करूँगा, और तौबा के लिये फ़रमाया है, अल्लाह उन्हीं लोगों की तौबा क़बूल करता है जो जहालत (अज्ञान) की बिना (आधार) पर कोई बुरी हरकत कर बैठें फिर जल्दी से तौबा कर लें तो खुदा ऐसे लोगों की तौबा क़बूल करता है और खुदा जानने वाला और हिकमत वाला है।108. नमाज़ हर परहेज़गार (प्रत्येक संयमी) के लिये बाइसे तक़र्रुब (निकटता का साधन) है, और हज हर ज़ईफ़ो नातवां (प्रत्येक दुर्बल एवं निर्बल) का जिहाद (धर्म युद्घ) है। हर चीज़ की ज़कात (प्रत्येक वस्तु का कर) होता है और बदन (शरीर) की ज़कात (कर) रोज़ा (ब्रत) है, और औरत (स्त्री) का जिहाद शौहर से हुस्त्रे मुआशरत (पति से मृदुल ब्यवहार) है।109. सदक़ा के ज़रीए (दान द्दारा) रोज़ी तलब (जीविका की वांछना) करो।110. जिसे एवज़ (बदला) मिलने का यक़ीन (विश्वास) हो वह अतीया (उपहार) देने में दरियादिली (सख़ावत) दिखाता है।111. जितना खर्च (ब्यय) हो उतनी ही इमदाद (सहायता) मिलती है।112. जो मियाना रवी इख़तियार (जो संतुलित गति धारण) करता है वह मोहताज (निर्धन) नहीं होता।113. मुतअल्लिक़ीन (सम्बंधियों) की कमी दो किस्मों (प्रकारों) में एक क़िस्म (प्रकार) की आसूदगी (समृद्घि) है।114. मेल महब्बत (प्रेम ह्यवहार) पैदा करना अक्ल का निस्फ़ हिस्सा (बुद्घि का आधा भाग) है।115. ग़म (शोक, चिन्ता) आधा बुढ़ापा है।116. मुसीबत के अन्दाज़े (विपत्ति के आधार) पर (अल्लाह की तरफ़ से ) सब्र (संतोष) की हिम्मत (साहस) हासिल होती है। जो शख्स (ब्यक्ति) मुसीबत के वक्त (विपत्ति के समय) रान पर हाथ मारे उसका अमल (कर्म) अकारत जाता है।117. बहुत से रोज़ादार ऐसे हैं जिन्हें रोज़ों का समरा (फल) भूक प्यास के अलावा कुछ नहीं मिलता, और बहुत से आबिदे शब ज़िन्दा दार (रात रात भर ईबादत करने वाले) ऐसे हैं जिन्हें इबादत के नतीजे में जागने और ज़हमत (कष्ट) उठाने के सिवा कुछ हासिल (प्राप्त) नहीं होता। ज़ीरक व दाना (बुद्घिमान व चतुर) लोगों का सोना और रोज़ा न रखना भी क़ाबिलेसताइश (प्रशंसनीय) होता है।118. सदक़ा (दान) से अपने ईमान की निगहदाश्त (संरक्षण), और ज़कात (धार्मिक कर) से अपने माल (धन) की हिफ़ाज़त (रक्षा) करो, और दुआ से मुसीबत व इब्तिला (विपत्ति एवं आपदा) की लहरों को दूर करो।119. कुमैल इबने ज़ियाद नखई कहते हैं किः-अमीरुल मोमिनीन अली इबने अबी तालिब अलैहिस्सलाम ने मेरा हाथ पकडा और कब्रिस्तान की तरफ़ ले चले, जब आबादी से बाहर निकले तो, एक लम्बी आह की, फिर फ़रमायाः-ऐ कुमैल। यह दिल असरार व हिकम (भेदों एवं दर्शन) का ज़र्फ़ (बर्तन) है। इन में सब से बेहतर वह है जो ज़ियादा निगहदाश्त (अधिक संरक्षण) करने वाला हो, लिहाज़ा जो मैं तुम्हें बताऊं उसे याद रखना।देखो तीन क़िस्म (प्रकार) के लोग होते हैं, एक आलिम रब्बानी (परमात्मा द्धारा प्रदत्त विद्धान) दूसरा मुतअल्लिम (विघार्थी) जो नजात (निर्वाण) की राह पर बरक़रार (स्थिर) है, और अवामुन्नास (साधारण जनता) का वह पस्त गुरोह (निम्न वर्ग) है जो हर पुकारने वाले के पीछे हो लेता है, और हर हवा के रुख़ पर मुड़ जाता है, न उन्हों ने नूरे इल्म (ज्ञान प्रकाश) से कस्बे ज़िया (प्रकार ग्रहण) किया, न किसी मज़बूत सहरे की पनाह ली।ऐ कुमैल याद रख, कि इल्म (ज्ञान) माल (धन) से बेहतर है (क्योंकि) इल्म (ज्ञान) तुम्हारी निगहदाश्त (संरक्षण) करता है, और माल (धन) की तुम्हें हिफाज़त (रक्षा) करना पड़ती है, और माल (धन) ख़र्च (व्यय) करने से घटता है, लेकिन इल्म (ज्ञान) सर्फ़ (उपयोग) करने से बढ़ता है, और माल व दौलत के नताइज व अस्रात (परिणाम व प्रभाव) माल (धन) के फ़ना (दिनाश) होने से फ़ना (नष्ट) हो जाते हैं।ऐ कुमैल इल्म की शनासाई (ज्ञान का परिचय) एक दीन (धर्म) है कि जिस की इक्तिदा (अनुकरण) की जाती है। इस से इन्सान (मनुष्य) अपनी ज़िन्दगी में दूसरों से अपनी इताअत (आज्ञा) मनवात है और मरने के बाद नेक नामी हासील करता है। याद रखो कि इल्म हाकिम (अधिकारी) होता है और माल (धन) मह्कूम (अधीन)। ऐ कुमैल माल इकट्टा करने वाले ज़िन्दा (जीवित) होने के बावजूद मुर्दा होते हैं, और इल्म हासिल करने वाले रहती दुनिया तक बाक़ी रहते हैं। बेशक (निस्सन्देह) उन के अज्साम (शरीर) नज़रों से ओझल हो जाते हैं मगर उन की सूरतें (आकृतियां) दिलों में मौजूद रहती हैं। (इस के बाद हज़रत ने अपने सीनए अक़दस की तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया) देखो यहां इल्म (ज्ञान) का एक बड़ा ज़खीरा (भण्डार) मौजूद है। काश इस के उठाने वाले मुझे मिल जाते। हां मिला, कोई तो, या ऐसा जो ज़हीन (प्रवीण) तो है मगर नाक़ाबिले इत्मीनान (अविश्वसनीय) है, और जो दुनिया के लिये दीन को आलाए कार बनाने वाला है, और अल्लाह की उन नेमतों (वर्दानों) की वजह से उस के बन्दों पर तफ़व्वुक़ व बरतरी (श्रेष्ठता व बड़ाई) जतलाने वाला है, या जो अर्बाबे हक़ व दानिश (धर्म एवं बुद्घि वालों) का मुतीइ (आज्ञा पालक) तो है मगर उस के दिल के गोशों (कोनों) में बसीरत की रौशनी (दृष्टि का प्रकाश) नहीं है। बस इधर ज़रा सा शुब्हा (तनिक भी शंका) आरिज़ (उत्पत्र) हुआ कि उस के दिल में शुकूक व शुब्हात (शंकाओं व संदेहों) की चिंगारियां भड़कने लगीं। तो मअलूम होना चाहिये कि यह न इस क़ाबिल (योग्य) है और न वह उस क़ाबिल (योग्य) है। या ऐसा शख्स (ब्यक्ति) मिलता है जो लज़्ज़तों (स्वादों) पर मिटा हुआ है, और बआसानी ख़्वाहिशे नफ़्सानी (मायावी इच्छाओं) की राह पर ख़ीच जाने वाला है। या ऐसा शख्स (ब्यक्ति) जो जमअ आवरी व ज़ख़ीरा अन्दोज़ी पर जान दिये हुए है। यहां दोनों भी दीन (धर्म) के किसी अम्र (बात)की रिआयत व पासदारी करने वाले नहीं हैं। इन दोनों से क़राबी शहाबत चरने वाले चौपाये रखते हैं। जिस तरह तो इल्म के ख़ज़ीना दारों (ज्ञान कोषाध्यक्षों) के मरने से इल्म खत्म (समाप्त) हो जाता है।हां मगर ज़मीन (पृथ्वी) ऐसे फर्द (ब्यक्ति) से खाली नहीं रहती कि जो खुदा की हुज्जत को बरक़रार रखता है चाहे ज़ाहिर व मशहूर (प्रत्यक्ष व प्रसिद्घ) हो, या ख़ाइफ़ व पिन्हां, ताकि अल्लाह की दलीलें और निशान मिटाने न पायें, और वह हैं ही कितने और वह कहां पर हैं। खुदा की क़सम। वह तो गिन्ती में बहुत थोडे हैं। और उल्लाह के नज़दिक कद्रो मंज़िलत के लिहाज़ से बहुत बलन्द। खुदावन्दे आलम उन के ज़रीये से अपी हुज्जतों और निशानियों की हिफ़ाज़त करता है, यहा तक कि वह उन को अपने ऐसों के सिपुर्द कर दें और अपने ऐसों के दिलों में उन्हें बो दें। इल्म ने उन्हें एक क़दम हक़ीक़त (यथार्थ) व बसीरत (दृष्टि) के इंकिशाफ़त तक पहुंचा दिया है। वह यक़ीन व एतिमाद की रुह से घुल मिल गए हैं और उन चीज़ों को जिन्हें आराम पसन्द लोगों ने दुशवार (कठिन) करार दे रखा था, अपने लिये सहल व आसान समझ रखा है, और जिन चीज़ों से जाहिल भड़क उठते हैं उन से वह जी लगाए बैठे हैं। वह ऐसे जिस्मों के साथ दुनिया में रहते हैं कि जिन की रुहें मलए आला (सर्वोच्च आकाश) से वाबस्ता (सम्बन्ध) हैं। यही लोग तो ज़मीन में अल्लाह के नायब (प्रतिनिधि) और उस के दीन (धर्म) की तरफ़ दअवत (निमंत्रण) देने वाले हैं हाय उन की दीद (दर्शन) के लिये मेरे शौक़ की फ़रावानी (अभिलाषा की अधिकता)। (फिर हज़रत ने कुमैल से फ़रमाया) ऐ कुमैल। मुझे जो कुछ कहना था कह चुका अब जिस वक्त चाहो वापस जाओ।कुमैल इबने ज़ियाद नखई रहमतुल्लाह असरारे इमामत के ख़ज़ीनादार (इमामत के रहस्यों के भण्डारी) और अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) के खवास असहाब (विशेष मित्रों) में से थे। इल्मों फ़ज्ल में बलन्द मर्तबा और जहदो वरअ (इन्द्रीय निग्रह एवं संख्या) में इम्तियाज़े खास के हामिल (उच्च श्रेणी वाले) थे। हज़रत की तरफ़ से कुछ अर्से तक हीत के आमील रहे। सन 103 हिजरी में 90 वर्ष की उम्र में हज्जाज इबने यूसुफ़ सक़फ़ी के हाथ से शहीद हुए और बैरुने कूफ़ा दफ़्न हुए।120. इन्सान (मनुष्य) अपनी ज़बान के नीचे छिपा हुआ है।121. जो शख्स ब्यक्ति) अपनी क़द्रो मंज़िलत को नहीं पहचानता वह हलाक हो जाता है।122. एक शख्स (ब्यक्ति) ने आप से पन्दो मौईज़त (उपदेश एवं प्रवचन) की दर्खास्त (प्रर्थना) की, तो फ़रमायाः---तुम को उन लोगों में से न होना चाहिये कि जो अमल (कर्म) के और हुस्त्रे अंजाम (उत्तम परिणाम) की उम्मीद रखते हैं, और उम्मीदें बढ़ा कर तौबा (प्रायश्चित) को ताख़ीर (विलम्ब) में ड़ाल देते हैं, जो दुनिया के बारे में ज़ाहिदों (संयमी पुरुषों) की सी बातें करते है मगर उन के अअमाल (कर्म) दुनिया तलबों (दुनिया की वंछना करने वालों) के जैसे होते हैं। अगर दुनिया उन्हें मिले तो सेर (संतुष्ट) नहीं होते और अगर न मिले तो क़नाअत (संतोष) नहीं करते। जो उन्हें मिला है उस पर शुक्र (ध्न्यवाद) से कासिर (असमर्थ) रहते हैं, और जो बच रहा है उस के इज़ाफ़े (बढ़ौतरी) के ख़्वाहिशमन्द (इच्छुक) रहते हैं।दूसरों को मना करते हैं और खुद बाज़ नहीं आते। दूसरों को हुक्म देते हैं ऐसे का जिन्हें खुद बजा नहीं लाते। नेकों (सज्जन पुरुषों) को दोस्त रखते हैं मगर उन के जैसे अअमाल (कर्म) नहीं बजा लाते, और गुनहगारों से नफ़रत व इनाद (घृणा एवं दुशमनी) रखते हैं, हांलाकि वह खुद उन्हीं में दाखिल हैं। अपने गुनाहों की क़सरत (पापों की अधिकता) के बाइस (कारण) मौत (मृत्यु) को बुरा समझते हैं, मगर जिन गुनाहों (पापों) की वजह से मौत को ना पसन्द करते हैं उन्हीं पर क़ायम (स्थिर) हैं। अगर बीमार पड़ते हैं तो पशीमान (लज्जित) होते हैं, और तन्दुरुस्त (स्वस्थ) होते हैं तो मुत्मइन (संतुष्ट) हो कर खेल कूद में पड़ जाते हैं, जब बीमारी से छुटकारा पाते हैं तो इतराने लगते हैं, और मुब्तला (ग्रस्त) होते हैं तो उन पर मायूसी (निराशा) छा जाती है, जब किसी सख्ती व इब्तिला (कठिनाई एवं विपत्ति) में होते हैं तो लाचार व बेबस हो कर दुआयें मांगते हैं। और जब फ़राख़ दस्ती (समृद्घि) नसीब होती है तो फ़रेब (कपट) में मुब्तला हो कि मुंह फ़ेर लेते हैं। उन का नफ़स (आत्मा) ख़याली (काल्पनिक) बातों पर उन्हें क़ाबू में ले आता है, और वह यक़ीनी (विश्वसनीय) बातों पर उसे नहीं दबा लेते। दूसरों के लिये उन के गुनाहों (पापों) से ज़ियादा ख़तरा महसूस करते हैं और अपने लिये अअमाल (कर्म) से ज़ियादा ख़तरा महसूस करते हैं और अपने लिये अअमाल (कर्म) से ज़ियादा जज़ा (पुरस्कार) के मुतवक्क़ा (अभिलाषी) रहते हैं। अगर मालदार हो जाते हैं तो इतराने लगते हैं और फ़ितना व गुमराही (उपद्रव एवं भ्रष्टाचार) में पड़ जाते हैं। और अगर फ़क़ीर (दरिद्र) हो जाते हैं तो ना उम्मीद (निराश) हो जाते हैं और सुस्ती (शिथिलता) करते हैं। और जब मांगने पर आ जाते हैं तो इसरार (अनुरोध) में हद (सीमा) से आगे बढ़ जाते हैं। अगर उन पर ख़्वाहिशे नफ़्सानी का ग़लबा (कामेच्छा का आधिपत्य) होता है तो गुनाह जल्द से जल्द (पाप शीघ्रातिशीघ्र) करते हैं और तौबा (प्रायश्चित) को तअवीक़ (विलम्ब) में ड़ालते रहते हैं। अगर कोई मुसीबत लाहिक़ (विपत्ति पड़ती है) होती है तो अअमाले इसलामी के खुसूसी इम्तियाज़ात (विशेष श्रेष्ठाओं) से अलग हो जाते हैं। इबरत (शिक्षा) के वाकिआत (घटनाओं) को बयान करते हैंमगर खुद से इबरत (शिक्षा) हासिल नहीं करते, और वअज़ व नसीहत (प्रवचन एवं उपदेश) में ज़ोर बांधते हैं मगर खुद उस नसीहत (उपदेश) का असर नहीं लेते। वह बात करने में तो ऊंचे रहते हैं मगर अमल (ब्यवहार) में कम ही कम रहते हैं। फ़ानी (नष्ट होने वाली) चीज़ों में नफ़्सी नफ़्सी करते हैं, और बाक़ी रहने वाली चीज़ों में सहल अंगारी से काम लेते हैं। वह नफ़ा को नुक्सान (लाभ को हानि) और नुक्सान को नफ़ा (हानि को लाभ) ख़्याल करते हैं। मौत से ड़रते हैं जिस से बड़े गुनाह को खुद अपने लिये छोटा ख़्याल करते हैं। मौत से ड़रते हैं मगर फ़र्सत का मौक़ा निकल जाने से पहले अअमाल (कर्म) में जल्दी नहीं करते। दूसरों के ऐसे गुनाह (पाप) को बहुत बड़ा समझते हैं, जिस से बड़े गुनाह को खुद अपने लिये छोटा ख़्याल करते हैं, और अपनी ऐसी इताअत (आज्ञा पालन) को ज़ियादा समझते हैं जिसे दूसरे से कम समझते हैं। लिहाज़ा वह लोगों पर मोतरिज़ (आपत्ति कर्ता) होते हैं और अपने नफ़्स (आत्मा) की चिकनी चुपड़ी बातों से तअरिफ़ (प्रशंसा) करते हैं। दौलतमन्दों (समृद्घ ब्यक्तियों) के साथ तर्ब व निशात (हर्ष एवं आनन्द) में मशगूल (ब्यस्त) रहना उनहें ग़रीबों के साथ महफ़िले ज़िक्र (यादे खुदा की सभाओं) से ज़ियादा पसन्द है। अपने हक़ (हित) में दूसरे के ख़िलाफ़ (विरुद्घ) हुक्म लगाते हैं, लेकिन कभी यह नहीं करते कि दूसरों के हक़ में अपने ख़िलाफ़ हुक्म लगायें। औरों को हिदायत (अनिदेश) करते हैं, और अपने को गुमराही की राह पर लगाते हैं। वह इताइत (सेवा) लेते हैं और खुद नाफ़रमानी (अवज्ञा) करते हैं, और हक़ पूरा पूरा वसूल कर लेते हैं मगर खुद अदा नहीं करते। वह अपने पर्वरदिगार को नज़र अन्दाज़ कर के मख़्लूक (प्राणि वर्ग) से ख़ौफ़ (भय) खाते हैं, और मख़्लूकात (प्राणि वर्ग) के बारे में अपने पर्वरदिगार से नहीं ड़रते।123. हर शख्स (प्रत्येक ब्यक्ति) का एक अंजाम (अन्त) है, अब ख़वाह वह शीरों हो या तल्ख़ (चाहे वह मीठा हो या कडवा)।124. हर आने वाले के लिये पलटना है, और जब पलट गया तो जैसे कभी था ही नहीं।125. सब्र (संतोष) करने वाला ज़फ़र व कामरानी (विजय एवं सफलता) से महरुम (वंचित) नहीं होता, चाहे उस में तवील ज़माना (लम्बा समय) लग जाए।126. किसी जमाअत (समूह) के फ़ेल (कृत्य) पर रज़ामन्द होने वाला ऐसा है जैसे उसके काम में शरीक (सम्मिलित) हो, और ग़लत काम में शरीक होने वाले पर दो गुनाह (पाप) हैं, एक उस पर अमल करने का और एक उस पर रज़ामन्द (सहमत) होने का।127. अहदो पैमान (संकल्प एवं प्रतिक्षा) की ज़िम्मेदारियों को उन से वाबस्ता (आबद्घ) करो जो मेंखों (खूंटों) के जैसे मज़बूत (दृढ़) हों।128. तुम पर इताअत (आज्ञा पालन) भी लाजिम (अनिवार्य) है उन की जिन से नावाक़िफ़ (अनभिज्ञ) रहने की भी तुम्हें मुआफ़ी (क्षम्य) नहीं।129. अगर तुम देखो तो तुम्हें दिखाया जा चुका है, और अगर तुम हिदायत (अनुदेश) हासिल करो तो तुम्हें हिदायत की जा तुकी है।130. अपने भाई को शर्मिन्दए एह्सान (कृताज्ञता से लज्जित) बना कर सरज़निश (भर्त्सना) करो और लुत्फ़ व करम (दया व कृपा) के ज़रीए से उस के शर (दुष्कृत्य) को दूर करो।अगर बुराई का जवाब बुरीई से और गाली का जवाब गाली से दिया जाए तो इस से दुशमनी व निज़ाअ (विवाद) का दरवाज़ा खुल जाता है, और अगर बुराई से पेश आने वाले के साथ नर्मी व मुलायमत का ऱवैया इखतियार किया जाए तो वह भी अपना ऱवैया बदलने पर मजबूर हो जायेगा। चुनांचे एक दफ़आ इमामे हसन अलैहिस्सलाम मदीने के बाज़ार से गुज़र रहे थे कि एक शामी ने आप की जाज़िबे नज़र शख्सियत (आकर्षक ब्यक्तित्व) से मुतअस्सिर (प्रभावित) हो कर लोगों से दर्याफ्त किया कि यह कौन हैं। उसे बताया गया कि यह हसन इबने अली अलैहिस्सलाम हैं, यह सुन कर उसके तन बदन में आग सग गई और आप के क़रीब आकर आप को बुरा भला कहना शुरुउ किया। आप खामोशी से सुनते रहे। जब वह चुप हुआ तो आप ने फरमाया कि मअलूम होता है कि तुम यहाँ नव वारिद (नवागंतुक) हो। उस ने कहा कि हाँ ऐसा ही है। फ़रमाया कि तुम मेरे साथ चलो, मेरे घर में ठहरो। अगर तुम्हें कोई हाजत (आवश्यकता) हो तो मैं उसे पूरा करूँगा। माली इमदाद (आर्थिक सहायता) की ज़रूरत होगी तो माली इमदाद भी दूँगा। जब उसने अपनी सख्त व दुरूश्त (अभद्र) बातों के जवाब में यह नर्म रवी (नम्र ब्यवहार) व खुश अख़लाकी (सद ब्यवहार) देखी तो शर्म से पानी पानी हो गया, और अपने गुनाह (पाप) का एतिराफञ (इक़रार) करते हुए अफ़्वो का तालिब हुआ (क्षमा याचना की) और जब आप से रुखसत (विदा) हुआ तो रुए ज़मीन (सम्पुर्ण पृथ्वी) पर उन से ज़ियादा किसी और की क़द्रो मंज़िलत (सम्मान व प्रतिष्ठा) उस की निगाह में न थी।131. जो शख्स (ब्यक्ति) बदनामी की जगहों पर अपने को ले जाए तो फिर उसे बुरा न कहें और जो उससे बद ज़न (दुर्भावना रखता) हो।132. जो इखितिदार हासिल (सत्ता ग्रहण) कर लेता है जानिब दारी (पक्षपात) करने ही लगते हैं।133. जो खुदराई (स्वेच्छाचारिता) से काम लेगा वह तबाह व बर्बाद (नष्ट) होगा और जो दूसरों से मशविरा (परामर्श) लेगा वह उनकी अक्लों (बुद्घियों) में शरीक (भागीदार) हो जायेगा।134. जो अपने राज़ (रहस्य) को छिपाए रहेगा उसे पूरा कीबू रहेगा।135. फ़कीरी (दरिद्रता) सबसे बड़ी मौत (मृत्यु) है।136. जो ऐसे का हक़ अदा करे कि जो उस का हक़ अदा न करता हो, तो वह उस की परस्तिश (पूजा) करता है।137. ख़ालिक़ (उत्पत्तिकर्ता) की मअसियत (पाप) में किसी मख्लूक़ (प्राणिवर्ग) की इताअत (आज्ञा पालन) नहीं है।138. अगर कोई शख्स (ब्यक्ति) अपने हक़ में देर करे तो उस पर ऐब (दोष) नहीं लगाया जा सकता, बल्कि ऐब (दोष) की बात यह है कि इन्सान दूसरों के हक़ पर छापा मारे।139. खुद पसन्दी (स्वाभिमान) तरख़ी से माने (प्रगति में बाधक) होती है।140. आख़िरत का मरहला (परलोक की समस्या) क़रीब और (दुनिया में) बाहमी रफ़ाक़त (परस्पर संगति) की मुद्दत (अवधि) कम है।141. आँख वाले के लिए सुब्ह रौशन (प्रकाशित) हो चुकी है।142. तर्के गुनाह (पाप के त्यागने) की मंजिल बाद में मदद (सहायता) मांगने से आसान है।आरम्भ में गुनाह (पाप) से बाज़ रहना उतना मुश्किल नहीं होता जितना गुनाह का आदी और उसके स्वाद से परिचित होने के बाद। क्यों कि इन्सान जिस चीज़ का आदी हो जाता है उस के करने में कोई भार नहीं महसूस करता। लेकिन उसे छोड़ने में लोहे लग जाते हैं, और जैसे जैसे आदत पुख्ता (पक्की) होती जाता है, ज़मीर (अन्तः करण) की आवाज़ कमज़ोर पड़ जाती है और तौबा (प्रायश्चित) की कठिनाइयां हायल हो जाती हैं। इस लिये यह कह कर दिल को ढारस देते रहना कि फिर तौबा कर लेंगे। अकसर निष्फल साबित होता है। क्यों कि जब आरम्भ में गुनाह (पाप) को त्यागने में दुशवारी महसूस हो रही है तो उस की मुद्दत (अवधि) बढ़ाने के बाद तौबा और भी कठिन हो जायेगी।143. बसा अवक़ात (कभी कभी) एक बार का खाना (भोजन) बहुत बार के खानों से माने (बाधक) हो जाता है।144. इन्सान जिस ज्ञान व कला से भिज्ञ होता है उसे बड़ा महत्व देता है और जिस ज्ञान से अनभिज्ञ होता है उसे महत्वहीन समझ कर उसकी बुराई एवं निन्दा करता है। कारण यह है कि वह यह देखता है कि जिस सभा में उस ज्ञान व कला की चर्चा होती है उसे महत्व हीन समझ कर नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है जिससे वह एक तरह का हल्कापन महसूस करता है और यह हल्का पन उस के लिये दुखदायी होता है। और इन्सान जिस चीज़ से भी कष्ट महसूस करेगा उससे स्वभावतः नफ़रत (घृणा) करेगा और उससे ईर्ष्या रखेगा। जैसे अफ़लातून से पूछा गया कि क्या कारण है कि न जानने वाला जानने वाले से ईर्ष्या रखता है मगर जानने वाला न जानने वाले से घृणा व ईर्ष्या नहीं रखता उसने कहा चुँकि न जानने वाला अपने अन्दर एक दोष व कमी महसूस करता है और यह गुमान करता है कि जानने वाला उसकी जहालत (अनभिज्ञता) के कारण उसे तुच्छ व अनाद्रत समझता होगा जिससे प्रभावित हो कर वह उस से ईर्ष्या व घृणा रखता है, और जानने वाला चुँकि जहालत के दोष से बरी होता है इस लिये वह कल्पना भी नहीं करता कि वह उसे तुच्छ समझता होगा। इस लिये कोई कारण नहीं होता कि वह उससे ईर्ष्या रखे।145. जो शख्स (ब्यक्ति) मुख़्तलिफ़ रायों (विभित्र परामर्शों) का सामना करता है वह त्रुटि एवं दोष पूर्ण स्थानों को पहचान लेता है।146. जो शख्स (ब्यक्ति) अल्लाह की ख़ातिर (के लिये) सिनाने ग़ज़ब (क्रोध का भाला) तेज़ करता है वह बातिल (अधर्म) के सूरमाओं के कत्ल (वध) पर तवाना (शक्तिशाली) हो जाता है।जो शख्स (ब्यक्ति) अल्लाह की ख़ातिर के (लिये) बातिल (अधर्म) से टक़्क़र लेने के लिये उठ ख़ड़ा होता है उसे खुदावन्दे आलम की तरफ़ से ताईद व नुसरत (समर्थन एवं सहायता) हासिल होती है,और कमज़ोरी व बेसरो सामानी (साधन हीनता) के बावजूद बातिल कुव्वतें (अधर्म की शक्तियां) उस के अज़म (संकल्प) में तज़लज़ुल (कंपन) व सिबाते क़दम (स्थिर पगों) में जुंबिश पैदा नहीं कर सकतीं। और अगर उस के इक़दाम (कार्यवाही) में ज़ाती ग़रज़ (ब्यक्तिगत स्वार्थ) शरीक (सम्मिलित) हो तो उसे बड़ी आसानी से उस के इरादे से बाज़ रखा जा सकता है। चुनांचे सैयिद नेमत जज़ायरी अलैहिर्रहमा ने ज़हरुर्रबीइ में लिखा है कि एक शख्स ने कुछ लोगों को एक दरख्त (वृक्ष) की परस्तिश (पूजा) करते देखा तो उस ने जज़बए दीनी (धार्मिक भावनाओं) से मुतअस्सिर (प्रभावित) हो कर उस दरख्त (वृक्ष) को काटने का इरादा किया और जब तेशा (कुल्हाड़) लेकर आगे बढ़ा तो शैतान ने उस का रास्ता रोका और पूछा क्या इरादा है। उस ने कहा कि मैं इस दरख्त (वृक्ष) को काटना चाहता हूं ताकि लोग इस मुशरिक़ाना तरीक़ए इबादत (एनेकेश्वरवाद) से बाज़ रहें। शैतान ने कहा कि तुम्हें इस से क्या मतलब। वह जानें और उन का काम, मगर वह अपने इरादे पर जमा रहा। जब शैतान ने देखा कि यह ऐसा कर ही ग़ुज़रेगा तो उस ने कहा कि अगर तुम वापस चले जाओ तो मैं तुम्हें चार दिरहम रोज़ (प्रति दीन) दिया करुंगा जो तुम्हें बिस्तर के नीचे से मिल जाया करेंगे। यह सुन कर उस की नियत ड़ावा डोल होने लगी और कहा कि क्या ऐसा हो सकता है। उस ने कहा कि तजरिबा (अनुभव) कर के देख लो, अगर ऐसा न हुआ तो दरख्त को काटने का मौक़ा तुम्हें फिर भी मिल सकता है। चुनांचे वह लालच में आ कर पलट आया,और दूसरे दिन वह दिरहम उसे बिस्तर के नीचे से मिल गए। मगर दो चार रोज़ के बाद यह सिलसिला ख़त्म हो गया। अब वह फिर तैश (आक्रोश) में आया और तेशा (कुल्हाड़) ले कर दरख्त (वृक्ष) की तरफ़ बढ़ा, कि शैतान ने आगे बढ़ कर कहा कि अब तुम्हारे बस में नही कि तुम इसे काट सको, क्यों कि पहली बार तुम सिर्फ़ अल्लाह की रज़ामन्दी हासिल करने के लिए निकले थे, और अब चन्द पैसों की ख़ातिर निकले होष लिहाज़ा तुम ने हाथ उठाया तो में तुम्हारी गर्दन तोड दूंगा। चुनांचे वह बेनैले मराम (निष्फल) लौट आया।147. जब किसी अम्र (बात) से दहशत (भय) महसूस करो तो उस में फांद पड़ो, इस लिये कि खटका लगा रहना उस ज़रर (हानि) से जिस का ख़ौफ़ (भय) है, ज़ियादा तकलीफ़देह (कष्टदायक) चीज़ है।148. सरबरावुर्दा (सम्मानित) होने का ज़रिआ (साधन) सीने की वुसअत (हृदय की विशालता) है।149. बदकार (दुष्ट) की सरज़निस (भर्त्सना) नेक (सज्जन) को उसका बदला दे कर करो।मक़सद (उद्देश्य) यह है कि अच्छों को उनके अच्छे काम का पूरा पूरा सिला (बदला) देना और उन के कारनामों की बिना (आधार) पर उन की कद्र अफ़ज़ाई (प्रोत्साहन) करना बुरों को भी अच्छाई की राह पर लगाता है और यह चीज़ अख़्लाक़ी मवाइज़ (नैतिक प्रवचन) और तंबीह व सरज़निश (प्रताणाना व भर्त्सना) से ज़ियादा मुवस्सिर (अधीक प्रभावशाली) साबित होती है क्यों कि इन्सान तबअन (स्वभावतः) उन चीज़ों की तरफ़ राग़िब (आकर्षित) होता है जिनके नतीजे में उसे फ़वाइद (लाभ) हासिल हों और उसके कानों में मदहो सताइश (सराहना एवं प्रशंसा) के तराने गूंजें।150. दूसरे के सीने (हृदय) से कीना व शर (ईर्ष्या व उपद्रव) की जड़ इस तरह काटो कि खुद अपने सीने से उसे निकाल फ़ेंको।151. ज़िद और हटधर्मी सहीह राह (विचार) को दूर कर देती है।152. लालच (लालसा) हमेशा की ग़ुलामी (सदैव की दासता) है।153. कोताही का नतीजा शर्मिन्दगी (शिथिलता का परिणाम लज्जा) और एहतियात व दूर अन्देशों (सतर्कता एवं दूर दर्शिता) का नतीजा सलामती (सुरक्षा) है।154. हकीमाना बात से ख़ामोशी इख़तियार (दार्शनिक बातों से मौन धारण) करने में कोई भलाई नहीं, जिस तरह जहालत की बात में कोई अच्छाई नहीं।155. जब दो मुख़्तलिफ़ दअवतें (विभित्र निमंत्रण) हों, तो उन में से एक ज़रूर गुमराही की दअवत (एक अवश्य ही भ्रष्टता का निमंत्रण) होगी।156. जब से मुझे हक़ (यथार्थ) दिखाया गया है मैं ने कभी उस में शक (शंका) नहीं किया।157. न मैं ने झूट कहा है, न मुझे झूटी खबर दी गई है, न मैं खुद (स्वयं) गुमराह (भ्रष्ट) हुआ, न मुझे गुमराह (भ्रष्ट) किया गया।158. ज़ुल्म (अत्याचार) में पहल करने वाला कल निदामत (पश्चाताप) से अपना हाथ अपने दांतों से काटता होगा।159. चलचलाव क़रीब है।160. जो हक़ (यथार्थ) से मुँह मोडता है तबाह (नष्ट) हो जाता है।161. जिससे सब्र (धैर्य) रिहाई (मुक्ति) नहीं दिलाता, उसे बेताबी व बेक़रारी (ब्याकुलता) हलाक (बध) कर देती है।162. अल अजब। (आश्चर्यजनक) क्या ख़िलाफ़त (उत्तराधिकार) का मेयार (मापदण्ड) बस सहाबियत और कराबत (मैत्री और रिश्तेदारी) ही हैं।163. दुनिया में इन्सान मौत की तीर अन्दाज़ी का हदफ़ (लक्ष्य) और मुसीबत व इब्तिला (विपत्ति एवं पीडा) की ग़ारत ग़री (विनाश) की जौलांगाह (दौड का मैदान) है, जहाँ हर घूँट के साथ उच्छू और हर लुक़मे में गुलूगीर (गले में फंसने वाला) फंदा है। और जहां बन्दा एक नेमत उस वक्त तक नहीं पाता, जब तक दूसरी नेमत जुदा न हो जाए, और उस की उम्र का एक दिन आता नहीं, जब तक कि एक दिन उस की उम्र से कम न हो जाए। हम मौत के मददगार हैं और हमारी जानें हलाक़त (मृत्यु) की ज़द (परिधि) पर हैं। तो इस सूरत (दशा) में हम कहां से बक़ा (स्थिरता) की उम्मीद कर सकते हैं। जब कि रात और दिन किसी इमारत (भवन) को बुलन्द नहीं करते मगर यह कि हमला आवर (आक्रमण कारी) हो कर जो बनाया है उसे गिराते और जो यकजा (एकत्र) किया है उसे बिखेरते होते हैं।164. ऐ फ़रज़न्दे आदम (अ0 स0)। (आदम के पुत्र) तू ने अपनी ग़िज़ा (भोजन) से जो ज़ियादा कमाया है उस में दूसरे का ख़ज़ांची है।165. दिलों के लिए रग़बत व मैलान (आकर्षण व रुचि) आगे बढ़ना व पीछे हटना होता है, लिहाज़ा उन से उस वक्त तक काम लो जब उन में ख़्वाहिश (इच्छा) व मैलान (रुचि) हो क्यों कि दिल को मजबूर करके किसी काम पर लगाया जाए तो उसे कुछ सुझाई नहीं देता।166. जब गुस्सा (क्रोध) मुझे आए तो कब अपने गपस्से को उतारूं। क्या उस वक्त तक कि जब इंतिकाम (बदला) न ले सकूं और यह कहा जाए कि सब्र कीजिये (धैर्य रखिये), या उस वक्त कि जब इंतिकाम (बदले) पर कुदरत (सामर्थ्य) हो और कहा जाए कि बेहतर है सब्र कीजिये।167. आप का गुज़र एक धूरे की तरफ से हुआ जिस पर ग़लाज़तें (गन्दगियां) थीं, फ़रमाया, यह वह है जिस के साथ बुख़्ल (कंजूसी) करने वालों ने बुख्ल (कंजूसी) किया। एक दूसरी रवायत में है कि उस मौक़े पर आप ने फ़रमाया, यह वह है जिस पर कल तुम लोग एक दूसरे पर रश्क (प्रतिस्पर्धा) करते ते।168. तुम्हारा वह माल अकारत नहीं गया जो तुम्हारे लिये इबरत व नसीहत का बाइस (उपदेश एवं शिक्षा का कारण) बन जाए।169. यह दिल भी उसी तरह थकते हैं जिस तरह बदन (शरीर) थकते हैं इस लिये (जब ऐसा हो तो) उन के लिये लतीफ़ हकीमाना जुमले (मृदुल दार्शनिक वाक्य) तलाश करो।170. जब ख़्वारिज का कौ़ल (कथन), ला हुक्मा इल्लल्लाह, (हुक्म अल्लाह से विशिष्ट है) सुना तो फ़रमाया, यह जुमला (वाक्य) तो सहीह है मगर जो इस से मुराद (तात्पर्य) लिया जाता है, वह ग़लत है।171. बाज़ारी आदमियों की भीड़ भाड़ के बारे में फ़रमायाः---यह वह लोग होते हैं कि मुजतमअ (एकत्र) हों तो छा जाते हैं और जब मुंतशिर (अस्त ब्यस्त) हों तो पहचाने नहीं जाते।एक दूसरी जगह यही कथन इन प्रकार हैः---जब इकट्ठा (एकत्र) होते हैं तो बाइसे ज़रर (हानिकारक) होते हैं और जब मुंतशिर (अस्त ब्यस्त) हो जाते हैं तो फ़ायदे मन्द (लाभदायक) साबित होते हैं।लोगों ने कहा कि हमें इन के मुजतमअ (एकत्र) होने का नुक्सान (हानि) तो मअलूम है मगर इन के मुंतशिर होने का फ़ायदा क्या है। आप ने फ़रमाया किः----पेशावर अपने अपने कारोबार की तरफ़ पलट जाते हैं तो लोग उन के ज़रिए (ध्दारा) फ़ायदा (लाभ) उठाते हैं, जैसे मेमार (निर्माता) अपनी (निर्माणाधीन) इमारत (भवन) की तरफ़, जुलाहा अपने कारोबार की जगह की तरफ़, और नानबाई (रसोइये) अपने तनूर की तरफ़।172. आप के सामने एक मुजरिम (अपराधी) लाया गया जिस के साथ तमाशाइयों का हुजूम (समूह) था, तो आप ने फ़रमायाः----इन चेहरों पर फिटकिरा (धिक्कार) कि जो हर रूसवाई (अनादर) के मौक़े (अवसर) पर ही नज़र आते हैं।173. हर इन्सान के साथ दो फ़रिश्ते होते है जो उस की हिफ़ाज़त (रक्षा) करते हैं, और जब मौत का वक्त आता है तो वह उस के और मौत के बीच से हट जाते हैं, और बेशक (निस्सन्देह) इन्सान की मुकर्ररा उम्र (मनुष्य की निर्धारित आयू) उस के लिये एक मज़बूत सिपर (ढ़ाल) है।174. तलहा व ज़ुबैर ने हज़रत से कहा, कि हम इस शर्त पर आप की बैअत करते हैं कि इस हुकूमत में आप के साथ शरीक रहेंगे। आप ने फ़रमाया नहीं। बल्कि तुम तकवीयत (शक्ति) पहुंचाने और हाथ बटाने में शरीक और आजिज़ी और सख्ती (विनय एवं कठिनाई) के मौक़े पर मददगार (सहायक) होगे।175. ऐ लोगो। उस अल्लाह से डरो कि अगर तुम कुछ कहते हो तो वह सुनता है, और दिल में छिपा कर रखो तो वह जान लेता है। उस मौत की तरफ़ बढ़ने का सरोसामान (ब्यवस्था) करो कि जिस से भागे, तो वह तुम्हें पा लेगी, और अगर ठहरे, तो वह तुम्हें गिरफ़्त में ले लेगी, और अगर तुम उसे भूल भी जाओ तो वह तुम्हें याद रखेगी।176. किसी शख्स (ब्यक्ति) का तुम्हारे हुस्त्रे सुलूक (सदब्यवहार) पर शुक्र गुज़ार न होना (धन्यवाद न देना) तुम्हें नेकी और भलाई से बद दिल न बना दे। इस लिये की बसा अवका़त (कभी कभी) तुम्हारी इस भलाई की वह कद्र करेगा जिस ने उस से कुछ फ़ायदा (लाभ) भी नहीं उठाया, और उस ना शुकरे (कृतघ्र) से जितना तुम्हारा हक़ ज़ाए (नष्ट) किया है, उस से कहीं ज़ियादा तुम एक क़द्र दान की कद्रदानी हासिल कर लोगे, और खुदा नेक काम करने वालों को दोस्त रखता है।177. हर ज़र्फ़ (प्रत्येक पात्र) उस से कि जो उस में रखा जाए तंग हो जाता है। मगर इल्म का ज़र्फ़ (ज्ञान का पात्र) वसीइ (विशाल) होता जाता है।178. बुर्दबार (शालीन) को अपनी बुर्दबारी का पबला एवज़ (शालीनता का प्रथम प्रतिफल) यह मिलता है कि लोग जहालत दिखाने वाले के ख़िलाफ़ उस के तरफ़दार हो जाते हैं।179. अगर तुम बुर्दबार (शालीन) नहीं तो बज़ाहिर (प्रत्यक्ष में) बुर्दबार बनने की कोशिश करो, क्यों कि ऐसा कम होता है कि कोई शख्स (ब्यक्ति) किसी जमाअत (दल) की शबाहत इख़तियार (मुख़ौटा धारण) करे और उन में से न हो जाए।180. जो शख्स (ब्यक्ति) अपने नफ़्स का मुहासिबा (अपनी आत्मा का आंकलन) करता है वह फ़ायदा (लाभ) उठाता है और जो ग़फ़लत (अचेतना) बरतता है वह नुक्सान में रहता है। जो ड़रता है वह अज़ाब (दण्ड) से महफ़ूज़ हो जाता है, और जो इबरत हासिल (शिक्षा प्राप्त) करता है वह बीना आंख वाला हो जाता है, और जो बीना होता है वह बा फ़हम (बुद्घिमान) हो जाता है और जो बा फ़हम होता है उसे इल्म हासिल (ज्ञान प्राप्त) हो जाता है।181. यह दुनिया मुंह जोरी दिखाने के बाद फिर हमारी तरफ़ झुकेगी, जिस तरह काटने वाली ऊंटनी अपने बच्चे की तरफ़ झुकती है।इस के बाद हज़रत ने इस आयत की तिलावत फ़रमाईः---हम यह चाहते हैं कि लोग ज़मीन (पृथ्वी) पर कमज़ोर (निर्बल) कर दिये गए हैं उन पर एहसान (सद ब्यवहार) करें और उन के इमाम (पेशवा) बनायों और उन्हीं को इस ज़मीन (पृथ्वी) का वारिस (स्वामी) बनायें।182. अल्लाह से डरो उस शख्स (ब्यक्ति) के डरने के मानिन्द (समान) जिस ने दुनिया की वाबस्तगियों (आबद्घताओं) को छोड कर दामन गर्दान (समेट) लिया और दामन गर्दान कर कोशीश में लग गया, और अच्छाइयों के लिये इल वक़फ्ए हयात (जीवन की इस अन्तराल) में तेज़ गामी (तीब्र गति) के साथ चला और ख़तरों के पेशे नज़र (द्रष्टिगत) उस ने नेकियों की तरफ़ क़दम बढ़ाया और अपनी क़रारगाह (गंतब्य स्थान) और अपने अअमाल (कर्म) और अंजामे कार (परिणाम) की मंज़िल पर नज़र रखी।183. सख़ावत (दानशीलता) इज़्ज़त व आबरु (मान मर्यादा) की पासबान (रक्षक) है। बुर्दबारी (सहशीलता) अहमक (मूर्ख) के मुंह का तसमा (चमड़े का फ़ीता) है. दरग़ुज़र (क्षमा) करना कामयाबी (सफलता) की ज़कात (दान) है। जो गद्दारी करे उसे भूल जाना उस का बदल है। मशविरा (परामर्श) लेना खुद सहीह रास्ता पा जाना है। जो शख्स (ब्यक्ति) अपनी राय (विचार) पर एतिमाद (भरोसा) कर के बेनियाज़ (लापर्वा) हो जाता है वह अपने को खतरे में डालता है। सब्र (धैर्य) मसाइब व हवादिस (विपत्तियों एवं आपदाओं) का मुक़ाबिला करता है। बेताबी व बेकरारी (ब्याकुलता) ज़माने (समय) के मददगारों (सहायकों) में से है। बेहतरीन दौलत मन्दी (सर्वोत्तम समृद्घि) आर्ज़ुओं (आकांक्षाओं) से हाथ उठा लेना है। बहुत सी गुलाम अक्लें (दास बुद्घियां) अमीरों (धनाढ़यों) की हवाओ हवस (लोभ एवं त्रष्णा) के बार (बोझ) में दबी हुई हैं। तजरिबा व आज़माइश (अनुभव एवं परिक्षण) की निगहदाश्त (संरक्षण) हुस्त्रे तौफ़ीक़ (शुभ सामर्थ्य) का नतीजा है। दोस्ती व महब्बत (मैत्री एवं प्रेम) इकतिसाबी क़राबत (उपार्जित सम्बंध) है। जो तुम से रंजीदा (दुखी) व दिस तंग हो उस पर इत्मीनान व एतिमाद (संतोष व विश्वास) न करो।184. इन्सान की खुद पसन्दी (मनुष्य का स्वाभीमान) उस की अक़्ल के हरीफ़ों (बुद्घि के दुशमनों) में से है।185. तकलीफ़ (कष्ट) से चश्म पोशी करो (आंख फेर लो) वर्ना कभी खुश नहीं रह सकते। 186. जिस (पेड़) की लकड़ी नर्म हो उस की शाख़ें (शाख़ायें) घनी होती है।187. मुख़ालिफ़त( विरोध) सहीह राय को बर्बाद कर देती है।188. जो मंसब (पद) पा लेता है दस्त दराज़ी (अत्याचार) करने लगता है।189. हालत (परिस्थितियों) के पलटों में ही मर्दों के जौहर (पुरुषों के पुरुषार्थ) खुलते हैं।190. दोस्त (मित्र) का हसद (ईर्ष्या) करना दोस्ती की ख़ामी (मित्रता का कच्चा पन) है।191. अकसर (बहुधा) अक्लों (बुद्घियों) का ठोकर खा कर गिरना, तमअ व हिर्स (लोभ व लोलुप्ता) की बिजलियैं चमकने पर होता है।192. यह इन्साफ़ (न्याय) नहीं कि सिर्फ़ ज़न व गुमान पर एतिमाद (केवल अनुमान एवं भ्रम पर विश्वास) करते हुए फ़ैसला (निर्णय) किया जाए।193. आख़िरत (परलोक) के लिये बहुत बुरा तोशा (आहार) है बंदगाने खुदा पर जुल्मों तअद्दी (अत्याचार व अन्याय) करना।194. बलन्द इन्सान के बेहतरीन अफआल (पुरुषोत्तम के श्रेष्ठ कार्यों) में से यह है कि वह उन चीज़ों से चश्म पोशी करे (आंख फेर ले) जिन्हें वह जानता है।195. जिस पर हया (लाज) ने अपना लिबास (वस्त्र) पहना दिया है उस के ऐब (दोष) लोगों की नज़रों के सामने नहीं आ सकते।196. ज़ियादा खामोशी 197. तअज्जुब (आश्चर्य) है कि हासिद (ईर्ष्यालु) जिस्मानी तन्दुरुस्ती (शारीरिक स्वास्थ्य) पर हसद (ईर्ष्या) करने से क्यों ग़ाफिल हो गए (चूक गए)।198. तमअ (लोभ, लालच) करने वाला ज़िल्लत (अपमान) की जंज़ीरों में जकड़ा रहता है।199. आप से ईमान के मुतअल्लिक पूछा गया तो फरमायाः----ईमान दिल से पहचाना, ज़बान से इकरार करना और अअज़ा (अंगों) से अमल (क्रिया) करना है।200. जो दुनिया के लिऐ अनदोहनाक (शोकग्रस्त) हो वह क़ज़ा व क़दरे इलाही (अल्लाह के निर्णय व निश्चय) से नाराज़ (अप्रसत्र) है, और जो उस मुसीबत (विपत्ति) पर जिस में वह मुब्तला (ग्रस्त) है, शिकवा करे, तो वह अपने पर्वरदिगार का शाकी (शिकायत कर्ता) है, और जो किसी दौलतमन्द (समृद्घि) की वजह से झुके तो उस का दो तिहाई दीन (धर्म) जाता रहता है, और जो शख्स (व्यक्ति) कुरआन की तिलावत करे फिर मर कर दोज़ख (नर्क) में दाखिल (प्रविष्ट) हो तो वह ऐसे ही लोगों में से होगा, जो अल्लाह की आयतों (निशानियों) का मज़ाक उड़ाते थे, और जिस का दिल दुनिया की महब्बत में वारफता (बेसुध) हो जाए तो उस के दिल में दुनिया की यह तीन चीज़ें पैवस्त हो जाती हैं। ऐसा ग़म (शोक) कि जो उस से जुदा नहीं होता, और ऐसी हिर्स (लोलुप्ता) कि जो उस का पीछा नहीं छोड़ती, और ऐसी उम्मीद (आशा) कि जो बर नहीं आती (पुरी नहीं होती)।201. क़नाअत (संतोष) से बढ़ कर कोई सल्तनत (राज्य), और खुश खुल्क़ी (सदव्यवहार) से बढ़ कर कोई ऐशो आराम नहीं। इजरत (अ0 स0) से इस आयत कि, हम उसे पाको पाकीज़ा ज़िन्दगी देंगें, के मुतअल्लिक़ पूछा गया तो आप ने फ़रमाया कि, वह क़नाअत (संतोष) है।202. जिस की तरफ (ओर) फ़राख़ रोज़ी (विस्त्रत जीविकी) रुख किये हुए हो उसके साथ शिर्कत (भागीदारी) करो, क्यों कि उस में दौलत हासिल (धन प्राप्त) करने का ज़ियादा इम्कान (अधिक संभावना) और खुश नसीबी (सौभाग्य) का ज़ियादा क़रीना (अधिक ढ़ग) है। 203. ख़ुदावन्द के इर्शाद को मुताबिक, कि अल्लाह अदलो एहसान (न्याय एवं सद ब्यवहार) का हुक्म देता है, फ़रमाय, अदल इंसाफ़ है और एहसान लुत्फ़ो करम (मृदुलता एवं दया) है।204. जो आजिज़ व का़सिर (विवश एवं असमर्थ) हाथ से देता है उसे बा इक्तिदार (सत्तायुक्त) हाथ से मिलता है।205. अपने बेटे इमामे हसन (अ0 स0) से फ़रमायाः-----किसी को मुक़ाबले के लिये खुद न ललकारो। हां, अगर दूसरा ललकारे तो फ़ौरन (तत्काल) जवाब दो। इस लिये कि जंग की खुद से दअवत देने वाला ज़ियादती करने वाला है, और ज़ियादती (अत्याचार) करने वाला तबाह (नष्ट) होता है।मक़सद (उद्देश्य) यह है कि अगर दुशमन आमादए पैकार (लड़ाई के लिये तैयार) हो और जंग (युद्घ) में पहल करे तो उस मौक़े पर अज़ खुद हमला न करना चाहिए, क्यों कि यह सरासर ज़ल्मों तअद्दी (अत्याचार एवं ज़ियादती) है। और ज़ुल्मों तअद्दी करेगा वह उस की पादाश में (दण्ड स्वरुप) ख़ाके मज़ल्लत (अपमान की धूल) पर पछाड़ दिया जायेगा। चुनांचे अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) हमेशा दुशमन के ललकारने पर ही मैदान (रण) में आते और खुद से दअवते मुक़ाबिला न देते थे। चुनांचे इबने अबिल हदीद लिखते हैं किः-----हमारे सुनने में नहीं आया कि हज़रत ने कभी किसी को मुक़ाबिले के लिये ललकारा हो। बल्कि जब मखसूस तौर पर (विशेष रुप से) आप को दअवते मुक़ाबिला दी जाती थी, या उमूमी तौर पर (सार्वजनिक रुप से) दुशमन ललकारता था तो उस के मुकाबिले में निकलते थे, और उसे क़त्ल कर देते थे।206. औरतो (स्त्रियों) की बेहतरीन ख़सलतें (श्रेष्ठ आदतें) वह हैं जो मर्दों (पुरुषों) की बदतरीन सिफ़तें (गुण) हैं। गु़रुर (अभिमान), बुज़दिली (कायरता), और कंजूसी। इस लिये कि औरत जब मग़रुर (स्त्री जब स्वाभिमानी) होगी तो वह किसी को अपने नफ्स (आकत्मा) पर क़ाबू न देगी, और कंजूस होगी तो अपने और शौहर (पति) के माल (धन) की हिफ़ाज़त (रक्षा) करेगी, और बुज़दिल (कायर) होगी तो वह हर उस चीज़ से ड़रेगी जो उसे पेश आयेगी।207. आप से अर्ज़ किया गया कि अक्लमन्द (बुद्घिमान) के औसाफ़ (विशेषतायें) ब्यान किजिय्फ़ फ़रमायाः----अक़्लमन्द (बुद्घिमान) वह है जो हर चीज़ (वस्तु) को उस के मौक़ा व महल पर रखे। फिर आप से कहा गया कि जाहिल का वसफ़ (विशेषता) बताइये----तो फ़रमाया कि मैं बयान कर चुका।208. ख़ुदा की क़सम। तुम्हारी यह दुनिया मेरी नज़रों से सुअर की उन अंतडियों से भी ज़ियादा ज़लील (तुच्छ) हैं जो किसी कोढ़ी के हाथ में हों।209. एक जमाअत (वर्ग) ने अल्लाह की इबादत (आराधना) सवाब की रगबत व ख्वाहिश के पेशे नज़र (पुण्य की रूचि व इच्छा के दृष्टिगत) की---- की यह सौदा (ब्यवसाय) करने वालों की इबादत (अराधना) है। और एक जमाअत (वर्ग) ने ख़ौफ़ (भय) की वजह से उस की इबादत की----यह गुलामों (दासों) की इबादत है, और एक जमाअत (वर्ग) ने अज़रूए शुक्र व सिपास ग़ुज़ारी उस की इबादत की, यह आज़ादों (स्वतंत्र लोगों) की इबादत है।210. औरत (स्त्री) सरापा (सर से पांव तक) बुराई है, और सबसे बड़ी बुराई उसमें यह है कि उस के बग़ैर (बिना) चारा (उपाय) नहीं।211. जो शख्स (ब्यक्ति) सुस्ती व काहिली करता है, वह अपने हुक़ुक़ (अधिकार) को ज़ाए व बर्बाद (नष्ट) कर देता है, और जो चुगुल खोर की बात पर एतिमाद (विश्वास) करता है वह दोस्त (मित्र) को अपने हाथ से खो देता है।212. घर में एक ग़स्बी (अपहरित) पत्थर का लगाना उस की ज़मानत है कि वह तबाह व बर्बाद (सर्वनाश) हो कर रहेगा।213. मज़लूम (अत्याचार ग्रस्त) के ज़ालिम (अत्याचारी) पर क़ाबू पाने का दिन, उस दिन से कहीं ज़ियादा होगा जिस में ज़ालिम (अत्याचारी) मज़लूम (न्रशंसित) के ख़िलाफ़ (विरपद्घ) अपनी ताक़त (शक्ति) दिखाता है।दुनिया में ज़ुल्म (अत्याचार) सह लेना आसान है मगर आख़िरत (परलोक) में उस की सज़ा भुगतना आसान नहीं है। क्यों कि ज़ुल्म (अत्याचार) सहने का अर्सा (अवधि) ज़िन्दगी भर क्यों न हो फिर भी महदूद (सीमित) है, और ज़ुल्म (अत्याचार) की पादाश (सज़ा) जहन्नम (नर्क) है जिस का सबसे हौलनाक (भयावह) पहलू यह है कि वहां ज़िन्दगी ख़त्म न होगी कि मौत दोज़ख़ के अज़ाब (मृत्यु नर्क की यातनाओं) से बचा ले जाये। चुनांचे एक ज़ालिम (अत्याचारी) अगर किसी को क़त्ल कर देता है, तो क़त्ल के साथ ज़ुल्म की हद (अत्याचार की सीमा) भी ख़त्म हो जायेगी और अब इस की गुंजाइश न होगी कि उस पर मज़ीद (अग्रेतर) ज़ुल्म किया जा सके, मगर उस की सज़ा यह है कि उसे हमेशा (सदैव) के लिये दोज़ख़ (नर्क) में ड़ाला जाए कि जहां वह अपने किये की सज़ा भुगतता रहे।214. अल्लाह से कुछ तो डरो, चाहे वह कम ही हो, और अपने और अल्लाह के दरमियान (बीच) कुछ तो पर्दा रखो चाहे वह बारीक ही सा हो।215. जब एक सवाल (प्रश्न) के लिये जवाबात (उत्तरों) की बहुतात (अधिकता) हो जाए तो सहीह बात छिप जाया करती है।216. बेशक (निस्सन्देह) अल्लाह तआला के लिये हर नेमत (प्रत्येक वर्दान) में एक हक़ (यथार्थ) है, तो जो उस हक़ (अधिकार) को अदा करता है, अल्लाह उस के लिये नेमत (वर्दान) को और बढ़ाता है, और जो कोताही (शिथिलता) करता है वह मौजूदा नेमत को भी ख़तरे में डालता है।217. जब मक़दिरत (सामर्थ) ज़ियादा (अधिक) हो जाती है तो ख्वाहिश (इच्छा) कम हो जाती है।218. नेमतों (वर्दानों) के ज़ाइल (नष्ट) होने से डरते रहो, क्यों कि हर बे क़ाबू हो कर निकल जाने वाली चीज़ पलटा नहीं करती।219. जज़्बए करम (दया भावना) राबितए क़राबत (निकटतम सम्पर्क) से ज़ियादा लुत्फ़ो मेहरबानी (दया एवं कृपा) का सबब (कारण) होता है।220. जो तुम से हुस्त्रे ज़न (सदभावना) रखे, उस के गुमान (संभावना) को सच्चा साबित करो।221. बेहतरीन अमल (उत्तम कर्म) वह है जिस के बजा लाने पर तुम्हें अपने नफ्स को मजबूर करना पड़े।222. मैं ने अल्लाह सुब्हानहू को पहचाना, इरादों के टूट जाने, नीयतों के बदल जाने, और हिम्मतों के पस्त (परास्त) हो जाने से।इरादों के टूटने और हिम्मतों के पस्त होने से खुदा वन्दे आलम की हस्ती (अस्तित्व) पर इस तरह इसतिदलाल (तर्क) किया जा सकता है कि मसलन एक काम करने का इरादा होता है मगर वह इरादा फ़ेल (क्रिया) से हमकिनार (मिलन) होने से पहले ही बदल जाता है, और उस की जगह कोई और इरादा पैदा हो जाता है। यह इरादों का अदलना बदलना और उन के तग़ैयुर व इंकिलाब (परिवर्तन एवं क्रांन्ति) का रुनुमा (प्रकट) होना इस की दलील (प्रमाण) है कि हमारे इरादों पर एक बाला दस्त क़ुव्वत कारफ़रमा (उच्चतम शक्ति कार्यरत) है जो उन्हें अदम से वजूद (अनस्तित्व से अस्तित्व) और वजूद से अदम (अस्तित्व से अनस्तित्व) में लाने की कुव्वत व ताकत (शक्ति एवं सामर्थ्य) रखती है। और यह अम्र (बात) इंसान (मनुष्य) के एहातए इखतियार (अधिकार क्षेत्र) से बाहर है। लिहाज़ा (अस्तु) उसे अपने से माफ़ौक़ (उच्च) एक ताक़त (शक्ति) का तसलीम (स्वीकार) करना होगा कि जो इरादों में रद्दो बदल (परिवर्तन) करती रहती है।223. दुनिया में (संसार में कड़वाहट) आख़िरत (परलोक) की खुशगवारी (आनन्दमयी) है, और दुनिया की खुशगवारी (का आनन्द) आख़िरत की तलख़ी (परलोक की कड़वाहट) है।224. ख़ुदावन्दे आलम ने ईमान का फ़रीज़ा (कर्तब्य) आइद (लागू) किया शीर्क की आलूदगियों (अनेकेश्वर वाद के पापों)से पाक (पक्ष्वत्र) करने के लिये, और नमाज़ को फ़र्ज़ (अनिवार्य) किया रउनत (अहंकार) से बचाने के लिये, और ज़कात (धार्मिक कर) को रिज़्क के इज़ाफ़े (जीविका में वृद्घि) का सबब (कारण) बनाने के लिये, और रोज़ा को मख़लूक के इख़लास (ब्रत को प्राणि वर्ग की निःस्वार्थता) को आज़माने (के परीक्षण) के लिये, और हज को दीन (धर्म) के तकवीयत (शक्ति) पहुंचाने के लिये, और जिहाद को इसलाम को सरफ़राज़ी बख़शने (श्रेष्ठता प्रदान करने) के लिये, और अम्र बिल मअरुफ़ (नेकियों के ऐदेश) को इसलाहे ख़लायक़ (मानव जाति के सुधार) के लिये, और नही अनिल मुन्कर (बुराई से रोकने) को सर फ़िरों (विद्रोहीयों की रोक थाम के लिये, और हुक़ूके क़राबत (रिश्तेदारी के अधिकारों) के अदा करने को (मित्रों और सहयोगियों की) गिन्ती बढ़ाने के लिये, और किसास (बदल) को खूंरेज़ी के इंस्दाद (रक्तपात रोकने) के लिये, और हूदूदे शरईया के इजरा (धार्मिक नियमों की सीमाओं के क्रियानवन) को मुहर्रमात (निषेधाज्ञाओं) की अहम्मीयत क़ायम (महत्ता स्थापित) करने के लिये, और शराब खोरी के तर्क (मदिरापाण के त्याग) को अक़्ल की हिफ़ाज़त (बुद्घि की रक्षा के लिये) और चोरी को परहेज़ से पाकबाज़ी (संयम) का बाइस (कारण) होने के लिये, और ज़िनाकारी (ब्यभिचार) से बचने को नसब (गोत्र) के हफ़ूज़ (सुरक्षित) रखने के लिये और इग़लाम (गुदमैथुन) के तर्क (त्याग) को नस्ल (वंश) बढ़ाने के लिये, और गवाही (साक्ष्य) को इन्कारे हुक़ूक (अधिकारों के नकारने) में सुबूत मुहैया (प्रमाण उपलब्ध) करने के लिये, और क़ियामे अम्न और शांति स्थापना को ख़तरों से तहफ़्फ़ुज़ (रक्षा) के लिये, और झूट से अलायहदगी (पृथकता) को सच्चाई का शरफ़ आशिकारा (सत्य की प्रतिष्ठा प्रकट) करने के लिये, और अमानतों की हिफ़ाजत (रक्षा) को उम्मत का निज़ाम (जनसाधारण की ब्यवस्था) दुरुस्त रखने के लिये, और इताअत (आज्ञा कारिता) को इमामत की अज़मत (नेतृत्व की प्रतिष्ठा) ज़ाहिर (ब्यक्त) करने के लिये,अहकामे शरअ (धार्मिक विधान की धाराओं) की बअज़ हिकमतों और मसलहतों (कतिपय दर्शन एवं हितों) का तज़किरा (चर्चा) करने से क़ब्ल (पूर्व) ईमान की ग़रज़ो ग़ायत (उद्देश्य एवं लक्ष्य) का ज़िक्र फ़रमाया है, क्यों कि ईमान शरई अहकाम (धार्मिक विधान के ईदेशों) के लिये एसास व बुनियाद (आधार व मौलिकता) की हैसियत रखता है। और उस के बग़ैर किसी शरअ व आईन (धार्मिक विधान एवं नियम) की ज़रुरत का एहसास ही पैदा नहीं होता।ईमान हस्तीए ख़ालिक़ (सृष्टा के अस्तित्व) के इक़रार और उस की यगांगत (परिचय) के एतिराफ़ (इक़रार) का नाम है। और जब इन्सान के कल्बो ज़मीर (हृदय व अन्तरात्मा) में यह अक़ीदा (श्रध्दा, विश्वास) रच बस जाता है तो किसी के आगे झुकना ग़वारा नहीं करता, और न किसी ताक़त (शक्ति) से मरऊब व मुतअस्सिर (आतंकित व प्रभावित) होता है, बल्कि ज़िहनी तौर पर (मांलिक रुप से) तमाम बंधनों से आज़ाद (मुक्त) हो कर खुद (स्वयं) को खुदाए वाहिद (एकांकी खुदा) का हल्का बगोश (आज्ञाकारी) तसव्वुर (कल्पना) करता है और इस तरह तौहिद की वाबस्तगी (अद्घैतवाद से संबद्घता) का नतीजा (परिणाम) यह होता है कि उस का दामन शीर्क की आलूदगियों (अनेकेश्वरवाद की अपवित्रताओं) से आलूदा (भ्रष्ट) होने नहीं पाता)।नमाज़ः---इबादत (आराधनाओं) में सब से बड़ी इबादत (आराधना) है, जो क़ियाम व क़ऊद और रुकूउ व सुजूद (स्थिर खड़े होने, उठने झुकने और ज़मीन पर मस्तक रखने) पर मुश्तमिल (विकसित) होती है और यह अअमाल (क्रियायें) ग़रुर व निखवत (अभिनान एवं अहंकार) के एहसासात (भावनाओं) को खत्म (समाप्त) करने, किब्र व अनानियत (घमंड एवं अहंवाद) को मिटाने और अज्ज़ व फिरोतनी (विनम्रता एवं विनीति) के पैदा करने का कामयाब ज़रीआ (सफल साधन) है। क्यों कि मुतकब्बिराना अफआल (अहंकारी क्रियायें) व हरकात (गतिविधियों) से नफ़्स (आत्मा) में तकब्बुर व रऊनत (घमंड व अहंकार) का जज़्बा (भावना) उभरता है, और मुंकसिराना अअमाल (विनीतिपुर्ण क्रियाओं) से नफ़्स (आत्मा) में तज़ल्लुल व खुशूउ (अपमान एवं विनीति) की कैफ़ियत (स्थिति) पैदा होती है। और रफ़्ता रफ़्ता (शनय शनय) इन अअमाल (क्रियाओं) की बजा आवरी (क्रियांवन) से इन्सान मुतवाज़े व मुंकसिरुल मिज़ाज (सुशील एवं विनम्र प्रकृति) हो जाता है। चुनांचे (अतएव) वह अरब कि जिन के किब्र व गुरुर (अहंकार व घमंड) का यह आलम था कि अगर उन के हाथ से कोड़ा गिर पड़ता था तो उसे उठाने के लिये झुकना गवारा न करते थे और चलते हुए जूतू का तसमा टूट जाता था तो झुक कर उसे दुरुस्त करना आर (दोष) समझते ते, सजदों में अपने चेहरे ख़ाक़े मज़ल्लत (तुच्छ मिट्टी) पर बिछाने लगे और नमाज़े जमाअत (सामूहिक नमाज़) में दूसरों के पैरों की जगह पर अपनी पेशानियां मस्तक) रखने लगे, और गुरुर व असबीयते जाहिलयत (अहंकार एवं अज्ञान के कट्टर पंथ) को चोड़ कर इसलाम की सहीह रुह (आत्मा) से आशना (परिचित) हो गए।ज़कातः--- यअनी हर बा इसतिताअत (प्रत्येक समर्थ भ्यक्ति) अपने माल (धन) में से एक मुक़र्ररा मिक़्दार (निर्धारित मात्रा) साल बसाल (प्रत्येक वर्ष) उन लोगों को दे कि जो वसाइले हयात (जैविक साधनों) से बिलकुल महरुम (पुर्णतया वंचित) या साल भर के आज़ूका (जीविका) का कोई ज़रीआ (साधन) न रखते हों। यह इसलाम का एक अहम फ़रीज़ा (महत्तवपुर्ण कर्तब्य) है जिस से ग़रज़ (उद्देश्य) यह है कि इसलामी मुआशरा (समाज) की कोई फ़र्द (ब्यक्ति) मुहताज व मुफ़लिस (दरिद्रता व निर्धनता) से जो बुराइयां पैदा होती हैं उन से महफ़ूज़ (सुरक्षित) रहे। और इस के अलावा यह भी मक़सद (उद्देश्य) है कि दौलत (धन) चलती फिरती और एक हाथ से दूसरे हाथ में मुंतकिल (स्थानांतरित) होती रहे। और चन्द अफ़राद (कुछ ब्यक्तियों) के लिये मख्सूस (विशिष्ट) हो कर न रह जाए।रोज़ा (ब्रत)---- वह इबादत (आराधना) है जिस में रिया (पाखंड, ढ़ोंग) का शाइबा (अंश) नहीं होता और न हुस्त्रे नीयत (सुसंकल्प) के अलावा कोई और जज़्बा (भावना) कारफरमा (कार्यरत) होता है। चुनांचे तनहाई (एकान्त) में जब भूक बेचैन (ब्याकुल) किये हुए हो, और प्यास तड़पा रही हो, न खाने की तरफ़ हाथ बढ़ता है न पानी की ख़्वाहिश (इच्छा) बेक़ाबू होने देती है। हांला कि अगर खा पी लिया जाए तो कोई पेट में झांक कर देखने वाला नहीं होता। मगर ज़मीर का हुस्त्र (अन्तरात्मा का सौन्दर्य) और खुलूस (निःस्वार्थता) का जौहर (सत्य) नीयत (संकल्प) को ड़ांवा ड़ोल नहीं होने देता। और यही रोज़ा का सब से बड़ा फ़ायदा (लाभ) है कि उस से अमल (क्रिया) में एख़लास (निःस्वार्थता) पैदा होता है।हजः---का मक़सद (उद्देश्य) यह है कि हल्क़ा बगोशाने (इसलाम (इसलाम से संबद्घ लोग) अतराफ़ों अकनाफ़े आलम (विश्व के कोने कोने) से सिमट कर एक मर्क़ज़ (केन्द्र) पर जमअ (एकत्र) हों ताकि उस आलमी इजतिमाअ (अन्तर्राष्ट्रीय सभा) से इसलाम की अज़मत का मुज़ाहिरा (श्रेष्ठता का प्रदर्शन) हो और अल्लाह की परस्तिश व इबादत (पूजा आराधना) का वलवला (जोश) ताज़ा और आपस में रवाबित (परस्पर सम्पर्क) के क़ायम करने का मौक़ा हासिल हो।जिहादः--- का मक़्सद (उद्देश्य) यह है कि जो कुव्वतें (शक्तियां) इसलाम की राह में मुज़ाहिम (बाधक, हस्ताक्षेपक) हों उन के खिलाफ़ (विरुद्घ) इमकानी ताक़तों(सम्भावित शक्तियों) के साथ जंग आज़मा (युद्घ कुशल) हुआ जाए ताकि इसलाम को फ़रोग़ व इसतेहकाम (उत्रति एवं दृढ़ता) हासिल हो। अगरचे (यघपि) इस राह में जाने के लिये ख़तरात पैदा होते हैं और क़दम क़दम (पग पग) पर मुश्किलें हायल (कटिनाइयां बाधक) होती हैं मगर राहते अबदी (अनंतकालीन सुख) व हयाते दाइमी (विक्राल ब्यापी जीवन) की नवेद (शुभ सूचना) इन तमाम मुसीबतों (समस्त विपत्तियों) को झेल ले जाने की हिम्मत (साहस) बांधती रहती है।अम्र बिल मअरिफ़ और नही अनिल मुंकरः—दूसरों को सहीह राह दिखाने और ग़लत रवी से बाज़ रखने का मुवस्सिर ज़रीआ (प्रभावी साधन) है। अगर किसी क़ौम में प़रीज़े को अंजाम देने वाले नापैद हो जाते हैं तो फिर उस को तबाही (विनाश) से कोई चीज़ नहीं बचा सकती। और वह अख़्लाक़ी व तमद्दुनी लिहाज़ (सदाचार व सांस्कृतिक रुप से) इन्तिहाई पस्तयों (नैतिक पतन के रसातल) में जा गिरती है। इस लिये इसलाम ने और फ़राइज़ (कर्तब्यों) के मुक़ाबिल में उसे बड़ी अहम्मीयत (महत्ता) दी है, और इस से पहलू बचा ले जाने को नाक़ाबिले तलाफ़ी जुर्म (अक्षम्य अपराध) क़रार दिया है।सिलए रहिमीः--- यह है कि इन्सान अपने क़राबत दारों (निकट सम्बंधियों) के साथ हुस्त्रे सुलूक (सद ब्यवहार) से पेश आए, और कम से कम बाहमी सलामो कलाम (परस्पर बातचीत) का सिलसिला क़तअ (समाप्त) न करे, ताकि दिलों में सफ़ाई पैदा हो, और खान्दान की शीराज़ा बन्दी (कुटुम्ब सूत्रबद्घ) हो और उस के बिखरे हुए अफ़राद (ब्यक्ति) एक दूसरे के दस्तो बाज़ू साबित (हाथ पैर सिद्घ) हों।क़िसास (बदला)— यह एक हक़ (अधिकार) है जो मक्तूल (बधित) के वारिसों को दिया गया है कि वह क़त्ल के बदले में क़त्ल का मुतालबा (मांग) करें ताकि पादाशे जुर्म (प्रत्यापराध) के ख़ौफ़ (भय) से आइन्दा (भविष्य) में किसी को क़त्ल की जुरअत (साहस) न हो, और वारिशों के जोशे इंतिकाम (प्रतिशोध की भावना) में एक से ज़ियादा जानों को हलाक (हत) होने की नौबत न आए। बेशक (निःसंदेह) अफ़वो दरग़ुज़र (क्षमादान) अपने मकाम (स्थान) पर फ़ज़ीलत (प्रधानता) रखता है। मगर जहां हुक़ूके बशर की पामाली (मानव अधिकारों के हनन) और अमने आलम की तबाही (विश्व शांति के विनाश) का सबब (कारण) बन जाए उसे इसलाह (सुधार) नहीं कहा जा सकता। बल्कि इस मौक़े पर क़त्लो खूं रेज़ी (रक्त पात) के इंस्दाद (निरोध) और हयाते इंसानी की बक़ा (मानव जीवन की स्थिरता) का वाहिद ज़रीआ क़िसास (एकमात्रशाधन बदला) ही होगा। चुनांचे कुदरत का इर्शाद हैः- ऐ अक्ल वालो (बुद्घिमानों)। तुम्हारे लिये किसास (बदले) में ज़िन्दगी है।इजराए हुदूद (सीमाओं का प्रभावीकरण)— का मक़सद (उद्देश्य) यह है कि मुहर्रमाते इलाहिया (अल्लाह ध्दारा निषिद्घ व वर्जीत कार्यों) के मुर्तकिब होने वाले (कर्ताओं) को जुर्म की संगीनी (अपराध की भयंकरता) का एहसास दिलाया जाए ताकि वह सज़ा व उक़ूत के ख़ौफ़ (दण्ड एवं प्रताणना के भय) से मनहियात (वर्जित व निषिद्घ चीज़ों से) अपना दामन बचा कर रखे।शराबः— ज़िहनी इंतिशार, परागंदगी, हवास ज़वाले अक्ल का बाइस (मांसिक अस्त ब्यस्तता, अब्यवस्था, इन्द्रियों एवं बुद्घि के पतन का कारण) होती है। जिस के नतीजे में वह इन्सान कबीह अफ़आल (दुषित क्रियायें) कर ग़ुज़रता है जिन के होशो हवास की हालत में उस से तवक्क़ा (अपेक्षा) नहीं की जा सकता। इस के अलावा सेहत (स्वास्थ) को बर्बाद और तबीअत को वबाई अमराज़ (संक्रामक रोगों) का केन्द्र बनने के लिये तैयार कर देती है, और बेख़्वाबी (अनिद्रा) और ज़ोफ़े आसाब (पेशि तंतुओं की दुर्बलता) वग़ैरा अमराझ़ (इत्यादि रोग) इस के लाज़िमी खास्सा (आवश्यक विशेषतायें) हैं और इन्हीं मफ़ाद व मफ़ासिद (हितों एवं दोषों) को देखते हुए शरीअत (धार्मिक विधान) ने इसे हराम (निषिद्घ) किया है।सर्क़ा (चोरी)— यअनी दूसरों के माल में दस्त दराज़ी (हस्तक्षेप) करना वह क़बीह आदत (दोषपुर्ण आदत) है जो हिर्स (लोभ) और हवाए नफ़्स के ग़लबा (काम भावना का आधिपत्य) की वजह से पैदा होती है।ज़िना व लिवाता (ब्यभिचार एवं गुद मैथुन)---को इल लिये हराम किया गया है कि नसब (महफ़ूज़ (वंश सुरक्षित) रहे और नस्ले इन्सानी (मानव वंश) फले फूले और बढ़े क्यों कि ज़िना (ब्यभिचार) में पैदा होने वाली औलाद, औलाद ही नहीं करार पाती कि उस से नसब साबित (वंश सिद्घ) होता है। इसी लिये उसे मुस्तहक्के़ मीरास (मीरास का अधिकारी) नहीं क़रार दिया जाता और ख़िलाफ़े फितरत अफ़आल (अप्रकृतिक क्रियाओं) के नतीजे में इन्सान कैसे अमराज़ (रोगों) में मुब्तला (ग्रस्त) हो जाता है जो क़तए नस्ल (वंश की समाफ्ति) के साथ ज़िन्दगी की बर्बादी का सबब (कारण) होती है।क़ानूने शहादत (साक्ष्य नियम)--- की इस लिये ज़रुरत (आवश्यकता) है कि अगर एक फ़रीक़ (पक्ष) दूसरे फ़रीक़ (पक्ष) के किसी हक़ (अधिकार) का इंकार करे तो शहादत (साक्ष्य) के ज़रीए एपने हक़ का इस्बात (अधिकार को प्रमाणित) कर के उसे महफ़ूज़ (सुरक्षित) कर सके।किज्ब व दरोग़ (झूट, मिथ्या)---- से इजतिनाब (विरक्ति, परहेज़) का हुक्म इस लिये है ताकि इस की ज़िद (प्रतिकूल) अर्थात (सदाक़त की अज़मत (सच्चाई की श्रेष्ठता) व अहम्मियत (महत्व) नुमायां (स्पष्ट) हो और सच्चाई के मसालेह व मुनाफ़े (हित व लाभ) को देख कर जूट से पैदा होने वाली अख़्लाकी कमज़ोरियों (नैतिक दुर्बलता) से बचा जाए।सलामः--- के मअनी (अर्थ) अम्न व सुल्ह पसंदी (शान्ति व शांति प्रियता) के हैं, और ज़ाहिर (स्पष्त) है कि शांति प्रियता खतरों से रक्षा और लड़ाई झगड़े की रोक थाम का कामयाब ज़रीआ है। जब दो मुसलमान आपस में एक दूसरे पर सलाम करते हैं तो उस के मअनी यह होते हैं कि वह एक दूसरे की ख़ैरख्वाही (शुभ चिन्तक होने) व दोस्ती का एलान (घोषणा) करते हैं। जिस के बाद दोनों एक दूसरे से मुत्मइन (संतुष्ट) हो जाते हैं।अमानतः---का तअल्लुक सम्बंध सिर्फ़ माल ही से नहीं बल्कि अपने मुतअल्लिका उमूर (सम्बंधित कार्यों) की बजा आवरी (की पुर्ति) में कोताही (शितिलता) करना भी अमानत के मनाफ़ी (प्रतिकूल) हैं। तो जब मुसलमान अपने मुतअल्लिका उमूर का लिहाज़ रखेंगे तो उस से नज़्मों नसक़े मिल्लत (लोक हित एवं ब्यवस्था) का मक़सद (उद्देश्य) हासिल होगा और जमाअत की शीराज़ा बन्दी (सामूहिक संगठन) पायए तकमील (पुर्ति) को पहुंचेगी।इमामतः---के इजरा का मक़सद (प्रचलन का उद्देश्य) यह है कि उम्मत की शीराज़ा बन्दी (सम्प्रदाय में संगठन) हो और इसलाम के अहकाम तब्दील व तहरीफ़ (परिवर्तन एवं हेर फेर) से महफ़ूज़ (सुरक्षित) रहें। क्यों कि अगर उम्मत (क़ौम) का कोई सरबराह (पेशवा, रहबर) और दीन (धर्म) का कोई मुहाफ़िज़ (रक्षक) न हो तो उम्मत का नज़्मो नस्क़ (प्रबन्ध एवं ब्यवस्था) बाक़ी रह सकता है और न अहकाम (आदेश) दूसरे की दस्तबुर्द (हस्तक्षेप) से महफ़ूज़ (सुरक्षित) रह सकते हैं। और यह उद्देश्य उसी वक्त हासिल हो सकता है जब उम्मत पर उस की इताअत (आज्ञाओं का पालन) भी वाजिब (अनिवार्य) हो। इस लिये कि अगर वह वाजिबुल इताअत (यदि उस की आज्ञाओं का पालन अनिवार्य) न होगा तो वह अदलो इंसाफ़ं क़ायम (न्याय एवं ब्यवस्था स्थापित) कर सकता है न ज़ालिम से मज़लूम का हक़ (अत्याचारी से नृशंसित का अधिकार) दिला सकता है, और न दुनिया से फ़ितना व फ़साद (उपद्रव एवं विकार) के ख़त्म (समाप्त) होने की तवक्कअ (अपेक्षा) की जा सकती है।225. आप फ़रमाया करते थे किः---अगर किसी ज़ालिम (निर्दयी, अत्याचारी) से क़सम लेना हो तो उस से इस तरह हलफ़ उठवाओ कि वह अल्लाह की कुव्वत व तवानाई (शक्ति एवं सामर्थ्य) से बरी (मुक्त) है। क्यों कि जब वह इस तरह झुठी क़सम खायेगा तो जल्द उस की सज़ा पायेगा और जब यूं (इस प्रकार) क़सम खाए कि क़सम अल्लाह की जिस के अलावा कोई मअबूद नहीं तो जल्द उस की ग़िरफ्त (पक़ड़) न होगी क्यों कि उस ने अल्लाह को वहदत व यकताई (अद्घैतवाद) के साथ याद किया है।इबने मीसम ने लिखा है कि एक शक्स (ब्यक्ति) ने मंसूर अब्बासी के पास इमाम जअफ़रे सादिक़ (अ0 स0) पर कुछ इल्ज़ाम आइद किये (दोषारोपण किया) जिस पर मंसूर ने हज़रत (अ0 स0) को तलब किया और कहा कि फ़लां शख्स (अमुक ब्यक्ति) ने आप के बारे में मुझ से यह और यह कहा है------यह कहां तक सहीह (सत्य) है। हज़रत (अ0 स0) ने फ़रमाया कि यह सब झूट है और इस में ज़र्रा बराबर (कण बर) सदाक़त (सच्चाई) नहीं है। तुम उस ब्यक्ति को मेरे सामने बुला कर पुछो। चुनांचे उसे बुला कर पुछा गया तो उस ने कहा कि मैं ने जो किछ कहा था व सहीह व दुरुस्त (सत्य एवं उचित) था। हज़रत (अ0 स0) ने फरमाया कि अगर तुम सच कहते हो तो मैं तुम्हें क़सम दिलाऊं तुम क़सम खाओ। चुनांचे हज़रत (अ0 स0) ने यही क़सम दिलाई कि, मैं खुदा की कुव्वत व ताक़त से बरी हूं। इस क़सम के ख़ाते ही उस पर फ़ालिज गिरा और वह बेहसो हरकत (अपाहिज) हो कर रह गया और इमाम अलैहिस्सलाम इज़्ज़त व एहतिराम (आदर व सम्मान) के साथ पलट आए।226. ऐ फ़रज़न्दे आदम (आदम के पुत्र) अपने माल में अपना वसी (ब्यवस्थापक) खुद बन, और जो तू चाहता है कि तेरे बाद तेरे माल में से ख़ैर ख़ैरात (दान पुण्य) की जाए, वह खुद उंजाम दे दे।मतलब यह है कि जो शख्स यह चाहे कि उस के मरने के बाद उस के माल का कुछ हिस्सा (भाग) उमूरे ख़ैर (शुभ कार्यों) में सर्फ़ (ब्यय) किया जाए तो उसे मौत का इन्तिज़ार न करना चाहिए बल्कि जीते जी जहां सर्फ़ (ब्यय) करना चाहता है, सर्फ़ कर जाए। इस लिये कि हो सकता है कि उस के मरने के बाद उस के वारिस उस की वसीयत पर अमल न करें या उसे वसीयत करने का मौक़ा (अवसर) ही न मिले।227. गुस्सा (क्रोध) एक क़िस्म (प्रकार) की दीवांगी (उन्माद) है, क्यों कि गुस्सावर (क्रोधित) बाद में पशीमान (लज्जित) ज़रुर (अवश्य) होता है, और अगर पशीमान (लज्जित) नहीं होता तो उस की दिवांगी (उन्माद) पुख्ता (परिपक) है।228. हसद (ईर्ष्या) की कमी बदन की तन्दुरुस्ती (शारीरिक स्वास्थ्य) का सबब (कारण) है।229. कुमैल इबने ज़ियाद नखई से फ़रमायाः-----ऐ कुमैल। अपने अज़ीज़ व अक़ारिब (सम्बंधियों एवं निकटवर्तियों) को हिदायत (निर्देश) करो कि वह अच्छी ख़सलतों (स्वभावों) को हासिल (ग्रहण) करने के लिये दिन के वक्त निकलें, और रात को सो जाने वाले की हाजत रवाई (आवश्यकता पुर्ति) को चल ख़ड़े हों। उस ज़ात की क़सम। जिस की कुव्वते शुनवाई (श्रवण शक्ति) तमाम आवाज़ों पर हावी (भारी) है, जिस किसी ने भी किसी के दिल को खुश किया तो अल्लाह उस के लिये उस सुरुर (आनन्द) से एक लुत्फ़े ख़ास (विशेष दया) ख़ल्क (उतपत्ति) फ़रमायेगा कि जब भी कोई मुसीबत (विपत्ति) उस पर पड़े तो वह नशेब (ढलुवान) में बहने वाले पानी की तरह (के समान) तेज़ी (तीब्रता) से बढ़े और अजनबी ऊंटों के हंकाने की तरह उस मुसीबत को हंका कर दूर कर दे।230. जब तंग दस्त (निर्धन) हो जाओ तो सदक़ा के ज़रीए (दान के ध्दारा) अल्लाह से ब्यापार करो।231. ग़द्दारों से वफ़ा करना अल्लाह के नज़दीक़ गद्दारी है और गद्दारों के साथ गद्दारी करना अल्लाह के नज़दीक़ ऐने वफ़ा है।232. कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्हें नेमत देकर रफ़्ता रफ़्ता (शनय शनय) अज़ाब (दण्ड) का मुस्तहक (पात्र) बनाया जाता है और कितने ही लोग ऐसे हैं कि जो अल्लाह की पर्दा पोशी से धोका खाए हुए हैं, और अपने बारे में अच्छे अलफ़ाज़ (शब्द) सुन कर फ़रेब (धोके़) में पड गए हैं, और मोहलत देने से ज़ियादा अल्लाह की जानिब (ओर) से कोई बड़ी आज़माइश (परीक्षण) नहीं।फ़स्ल (अध्याय)इस में हम अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) का वह मुशकिल व दक़ीक़ कलाम मुन्तखब (कठिन व गूढ़ वचन संकलित) कर के दर्ज करेंगे जो मोहताजे तशरीह (ब्याख्या योग्य) है।1. जब वह वक्त (समय) आयेगा तो दीन (धर्म) का यअसूब अपनी जगह क़रार पायेगा (यथास्थान हो जायेगा) और लोग सिमट कर उस की तरफ़ (ओर) बढ़ेंगे जिस तरह मौसमे ख़रीफ़ के क़ज़अ जमअ (एकत्र) हो जाते हैं।यअसूबः---मधुमक्खियों के राजा को कहते हैं। और यअसूबुद्दीन (हाकिमे दीन व शरीअत) से मुराद (तात्पर्य) हज़रते हुज्जत (बारहवें इमाम) अलैहिस्सलाम हैं। इस लफ़्ज़ से तअबीर करने (इस शब्द से उपमा) देने की वजह यह है कि जिस तरह अमीरे नहल (मधुमक्खियों के राजा) का ज़ाहिर व बातिन (प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष) पाक (पवित्र, पुनीत) होता है और वह नजासत (अपवित्रता) से एहतिराज करते (बचते) हुए फूलों और शिगूफ़ों (कलियों) से अपनी ग़िज़ा (आहार जीविका) हासिल करता है, उसी तरह हज़रते हुज्जत (अ0 स0) भी तमाम आलूदगियों (अपवित्रताओं) से पाक व साफ़ और हर तरह से तैयिब व ताहिर (पवित्र व पावन) होंगे। इस जुमले (वाक्य) के चन्द मअनी (अनेक अर्थ) किये गये हैं।1) पहले मअनी (प्रथम अर्थ) यह है कि जब हज़रते हुज्जत (अ0 स0) फ़ज़ाए आलम (विश्व के वायूमंडल या वातावरण) में सैर व गर्दिश (वितरण) करने के बाद अपने मर्क़ज़ पर मुक़ीम होंगे (केन्द्र पर स्थान करेंगे) क्यों कि अमीरे नहल (मधुमक्खियों का राजा) दिन का बेशतर हिस्सा व(अधिकांस भाग) पर्वाज़ (उड़ान) में गुज़ारता (ब्यतीत) करता है और जब अपने जिस्म का आखिरी हिस्सा (शरीर का अन्तिम भाग) कहीं पर टिकाता है तो वह अपनी हरकत व पर्वाज़ (गति व उड़ान) को ख़त्म कर देता है।2) दसरे मअनी (दूसरा अर्थ) यह है कि जब हज़रते हुज्जत (अ0 स0) अपने रुफ़का व अंसार (सहयोगी एवं सहायकों) के साथ ज़मीन (पृथ्वी) में चले फिरेंगे उस सूरत में ज़र्ब के मअनी चलने फिरने और जंब से मुराद (तात्पर्य) अंसार व आतिब्बाअ (सहायक अनिसरण कर्ता) होंगे 3) तीसरे मअनी यह है कि जब हज़रते हुज्जत (अ0 स0) शमशीरे बकफ़ (तलवार लेकर) उठ खड़े होंगे, उस सूरत में ज़र्बे जंब के मअनी शहद की मक्खि के डसने के होंगे।2. हाज़ल ख़तीबुश शहशहः—यह ख़तीबे शहशह के मअनी ख़तीबे माहिर (कुशल वक्ता) शोला बयान, भाषा के प्रयोग में धारा प्रवाह बोलने वाला। और दूसरे मक़ाम (स्थान) पर इस के मअनी (अर्थ) बख़ील (कंजूस) के हैं।ख़तीबे माहिर (कुशल वक्ता) से मुराद (अभिप्राय) सअसअह इबने सौहान आबदी हैं जो हज़रत के ख़्वास असहाब (विशेष मित्रों) में से थे। अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) के अस ुर्शाद (कथन) से उन की ख़िताबत की रिफ़ाअत (भाषण की उच्चता) और क़ुव्वते कलाम (प्रवचन शक्ति) का अन्दाज़ा हो सकता है। चुनांचे इबने अबिल हदीद ने लिखा हैः---सअसअह के इफ़्तेख़ार (गर्व) के लिये यह काफ़ी है कि अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ऐसे अफ़सहे आलम (विश्व के माने हुए वक्ता) उन की महारते कलाम (प3वचन कुशलता) व फ़साहते बयान (सम्बोधन निपुणता) को सराहते हैं।3. लड़ाई झगड़े का नतीजा कुहम होते हैं।(सैयिद रज़ी कहते हैं कि) क़ुहम से तबाहियां (विनाश) मुराद हैं, क्यों कि (अहकाम के मअनी ढ़केलने के हैं और) लड़ाई झगड़ा उमूमन (सादारणतः) लड़ने झगड़ने वाले को मुहलिकों और तबाहियों (घातक एवं विनाशकारी स्थितियों) में ढ़केल देता है। और इसी से क़हमतुल आराब की लफ़्ज़ (शब्द) माख़ूज़ (उद्घरित) है, और यह वह होती है कि बादिया नशीन (जंगलवासी) अरब खुश्क सालियों (अक़ाल की अवधि) में इस तरह मुब्तला (ग्रस्त) हो जायें कि उन के चौपाये (पशु) सिर्फ़ हड़्डियों का ढ़ांचा (कंकाल) हो कर रह जायें, और यही उस बला का उन्हें ढ़केल देना है। और इस की एक और भी तौज़ीह (ब्याख्या) की गई है और वह यह कि सख्ती व शिद्दत चूंकि उन्हें शादाब हिस्सों (हरे बरे भागों) की तरफ़ ढ़केल देती है यअनी सहराई ज़िन्दगी (वन जीवन) की सखती व क़हत साली (कठिनाई व अकाल) उन्हें शहरों में चले जाने पर मजबूर कर देती है। इस लिये उसे क़हमत कहा जाता है।4. जब लड़कियां नस्सुल हक़ाइक़ को पहुंच जायें तो दधियाली रिश्तेदार ज़ियादा हक़ (अधिक अधिकार) रखते हैं।सैयिद रज़ी कहते हैं कि नस्सुल हक़ाइ़क की जगह नस्सुल हक़ाक़ भी मिलता है। नस्स चीज़ों की इन्तिहा (पराकष्टा) और उन की आखिरी हद (चरम सीमा) को कहते हैं। जैसे चौपाया (पशु) की वह इन्तिहाई रफ्तार (अन्तिम गति) कि जो वह दौड़ सकता है नस्स कहलाती है। और यूं ही (इसी प्रकार) नसस्तुर्रजुल अनिल अम्र उस मौक़े पर कहा जाता है जब किसी शख्स (व्यक्ति) से पूरी तरह पूछ गछ करने के बाद उस से सब कुछ उगलवा लिया गया हो। तो हज़रत (अ0 स0) ने नस्सुल हक़ाक से हद्दे कमाल (वयस्कता की सीमा) तक पहुंचना मुराद (अभिप्राय) लिया है, कि जो बचपन की आखिरी हद और वह ज़मान होता है कि कमसिन कमसिनी के हुदूद (सीमा) से निकल कर बड़ो की सफ़ (पंक्ति) में दाखिल होता (प्रवेश करता) है और यह बुलूग़ (युवा अवस्था) के लिये निहायत फ़सीह (अत्यन्त कोमला) और अजीब किनाया (अदभुत व्यंजना) है। हज़रत (अ0 स0) यह कहना चाहते हैं कि जब लड़कियां उस हद (सीमा) तक पहुंच जायें तो दधियाली रिशतेदार, जब कि वह महरम (जिन से विहाह न हो सके) भी हों, जैसे भाई और चचा, वह उन का रिश्ता कहीं करना चाहें तो वह उन की मां से ज़ियादा रिश्ते के इंतिखाब (चयन) का हक़ (अधिकार) रखते हैं। और हक़ाक़ से (लकड़ी की) मां का दधियाली रिश्ते दारों से झंगड़ना मुराहद (अभिप्राय) है और हर एक का अपने को दूसरे से ज़ियादा हक़दार साबित करना है। और इसी से हक़्क्रकह हक़ाक़ (मैं ने उस से लड़ाई झगड़ा किया) कहा जाता है। यह भी कहा गया है कि नस्सुल हक़ाक़ से मुराद बुलूगे अक़ल और हदे रुश्दो कमाल तक पहुंचना है कयो कि हज़रत (अ0 स0) ने वह ज़माना मुराद लिया है कि जिस में लड़की पर हुकूक़ व फ़राइज़ आइद (अधिकार एवं कर्तव्य लागू) हो जाते हैं। और जिस ने नस्सुल हक़ाइक़ की रिवायत की है उस ने हक़ाइक़ को हक़िकत (यथार्थ) की जमअ (बहुवचन) लिया है।यह मफ़ाद (अर्थ) है उस का जो अबू उबैदए क़ासिम इबने सलाम ने कहा है। मगर मेरे ख्याल (विचार) में इस मक़ाम (स्थान) पर नस्सुल हक़ाक़ से मुराद (तात्पर्य) यह है कि लड़कियां उस हद तक पहुँच जायें कि जिस में उन के लिये अक्द (विवाह) और अपने हुक़ूक़ (अधिकारों) का खुद इस्तेमाल (स्वयं प्रयोग) जाइज़ (उचित) हो जाता है।इसी तरह उसे तीन साला ऊंटनियों से तशबीह (उपमा) दी गई है। और हक़ाक हक़ और हक्क़ह की जमअ (बहुवचन) है। यह उ, ऊंटनी और ऊंट को कहते हैं जो तीन साल पूरे कर के चौथे साल में दाखिल हो और ऊंट इस उम्र में सवारी और तेज़ दौड़ने के क़ाबिल (योग्य) हो जाते हैं और हक़ाइक़ भी हुक़ूक़ की जमअ (बहुवचन) है। इस बिना (आधार) पर दोनों रिवायतों के एक ही मअनी होंगो, और यह मअनी जो हम ने बयान किये हैं, पहले मअनी से ज़ियादा उसलूबे कलामे अरब (अरब भाषा शैली) से मेल खाते हैं। 5. ईमान एक लुम्ज़ा की सूरत (के समान) से दिल में ज़ाहिर (प्रकट) होता है, जूं जूं (जैसे जैसे) ईमान बढ़ता है वह लुम्ज़ा भी बढ़ता जाता है।सैयिद रज़ी कहते हैं कि लुम्ज़ा सफ़ेद मुक्ता (श्वेत बिन्दु) या उस के मानिन्द (समान) सफ़ेद निशान (चिन्ह) को कहते हैं और उसी से फ़रसुलमज़ उस घोड़े को कहा जाता है जिस के नीचे के होंट पर कुछ सफ़ेदी हो।6. जो शख्स (ब्यक्ति) दैनुज़ जुनून वसूल करे तो जितने साल उस पर ग़ुज़रे होंगे उन की ज़क़ात देना ज़रुरी है।सैयिद रज़ी कहते हैं की दैने ज़ुनून वह कर्ज़ा होता है कि क़र्जख़्वाह (ऋण देने वाला) यह फ़ेसला न कर सके कि वह उसे वसूल होगा, या उन्हें कभी उम्मीद पैदा हो और कभी नाउम्मीदी, (संदेहात्मक ऋण) और यह बहुत फ़सीह कलाम (कोमल ब्यंजना) है। यूं ही हर वह चीज़ जिस की तुम्हें तलब हो और यह न जान सको कि तुम उसे हासिल (प्राप्त) करोगे या नहीं वह ज़ुनून कहलाती है। चुनांचे अअशा का यह क़ौल (कथन) इसी मअनी का हामिल (अर्थ का घोतक) हैः---वह जुद्दे ज़ुनून गरज कर बरसने वाले अब्र (बादल) का बारिश (वर्षा) से भी महरुम (वंचित) हो, दरियाए फ़ुरात के मानिन्द (समान) नहीं क़रार दिया जा सकता जब कि वह ठाठे मार रहा हो, और कश्ती व अच्छे तैराक को ढ़केल कर दूर फ़ेंक रहा हो।जुद उस पुराने कुयें को कहते हैं जो किसी बियाबान में वाक़े (वन में स्थित) हो और ज़ुनून वह है कि जिस के मुतअल्लिक यह ख़बर न हो कि इस में पानी है या नहीं।7. जब आप ने लड़ने के लियें लश्कर (सेना) रवाना किया तो उसे रुखसत (विदा) करते वक्त फरमायाः---जहां तक बन पड़े औरतों (स्त्रियों) से आज़िब रहो।सैयिद रज़ी कहते हैं कि इस के मअनी (अर्थ) यह हैं कि औरतों (स्त्रियों) की याद में न खो जाओ, और उन से दिल लगाने और मुक़ारिबत (शारीरिक सम्पर्क) करने से परहेज़ करो, क्यों कि यह चीज़ बाज़ूए हमीयत (मर्यादा की भुजाओं) में कम्ज़ोरी और अज़्म की पुख्तगीयों (संकल्प की दृढ़ता) में सुस्ती पैदा करने वाली है, और दुशमन के मुक़ाबिले में कमज़ोर और जंग में सई व कोशिश (युद्घ में प्रयत्न व प्रयास) से रुगर्दां करने (मुंह फिरा देने) वाली है, और जो शक्स (ब्यक्ति) किसी चीज़ से मुंह फेर ले उस के लिये कहा जाता है कि अअज़बा मिन्हो (वह उस से अलग हो गया) और जो काना पीना छोड़ दे आज़िब और अज़ूब कहा जाता है।8. वह उस यासिरे फ़ालिज़ की मानिन्द है जो जुए के तीरों का पांसा फेंक कर पहले ही दांव में कामयाबी का मुतवक्का होता है।सैयिद रज़ी कहते हैं कि यासिरुन वह लोग हैं कि जो नहर की हुई ऊंटनी पर जुए की तीरों का पांसा फेंकते हैं, और प़ालिज़ के मअनी जितने वाले के हैं।9. जब अहमर्रल बास होता था तो हम रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की सिपर (शरण) में जाते ते, और हम में से कोई भी उन से ज़ियादा दुशमन से क़रीब तर न होता था।सैयिद रज़ी कहते हैं कि, इस का मतलब यह है कि जब दुशमन का कतरा बढ़ जाता था और जंग सख्ती से काटने लगती ती तो मुसलमान यह सहारा ढ़ूंढ़ने लगते थे कि रसूलुल्लाह (स0) खुद ब नफ़्से नफ़ीस जंग करें तो अल्लाह तआला आं हज़रत की वजह से उन की नुसरत (मदद) फ़रमाए और आप की मौजूदगी के बाइस (कारण) खौफ़ो खतर के मौक़े से महफ़ूज़ रहें।हज़रत का इर्शाद (कथन) कि जब अहमर्रल बास होता था के लफ़ज़ी मअनी (शाब्दिक अर्थ) यह हैं कि जंग सूर्ख हो जाती थी (रण क्षेत्र लाल हो जाता था) यह किनाया (ब्यंजना) है जंग की शिद्दत व सख्ती से और उस की तौज़ीह (ब्याख्या) में चन्द अक़वाल (कुछ कथन) ज़िक्र किये गए हैं, मगर उन में सब से बेहतर क़ौल यह है कि आप ने जंग की तेज़ी और गर्मी को आग से तशबीह (उपमा) दी है और जो अपने असर (प्रभाव) और रंग दोनों के एतिबार से गर्मी और सुर्खी (लाली) लिये होती है, और इस मअनी की ताईद (समर्थन) इस से भी होती है कि जब रसूलुल्लाह (स0) ने हुनैन के दिन क़बीलए बनी हवाज़िन की जंग में लोगों को जंग करते देखा तो फ़रमायाः---अब वतीस गर्म हो गया।वतीस उस जगह को कहते हैं जिस में आग जलाई जाए (अलाव)। इस मक़ाम (स्थान) पर पाग़मबर (स0) ने लोगों के मैदाने कारज़ार की गर्म बाज़ारी को आग के भड़कने और उस के लपकों की तेज़ी से तशबीह (उपमा) दी है।233. जब अमीरल मोमिनीन (अ0 स0) को यह ख़बर मिली कि मुआविया के साथियों ने शहर अंबार पर धावा बोल दिया है तो आप ब नफ़्सो नफ़ीस (स्वयं) पैदल चल ख़डे हुए, यहां तक की नुख़ैला तक पहुंच गए, इतने में लोग भी आप के पास पहुंच गए और कहने लगे या अमीरल मोमिनीन। हम दुशमन से निपट लेंगे आप को तशरीफ़ ले जाने की ज़रुरत नहीं। आप ने फ़रमाया तुम अपने से तो मेरा बचाव कर नहीं सकते दूसरों से क्या बचाव करोगे, मुझ से पहले रिआया (प्रजा) अपने हाकिमों (शासकों) की शिकायत किया करती थी, मगर मैं आज अपनी रईयत (प्रजा) की ज़ियादतियों का ग़िला करता हूं। जैसे कि मैं रईयत (प्रजा) हूं और वह हाकिम (राजा) और मैं हल्का बगोश (सभासद) हूं और वह फ़रमांरवा (अधिकारी)।सैयिद रज़ी कहते हैं कि, जब अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने एक लम्बी तक़रीर के ज़ैल (क्रम) में कि जिस का मुन्तखब हिस्सा (संकलित भाग) हम भाषण के क्रम में दर्ज कर चुके हैं, यह कलिमात इर्शाद फ़रमाए तो आप के साथियों में से दो अशखास (ब्यक्ति) उठ खड़े हुए, और उन में से एक ने कहा या अमीरल मोमिनीन। मुझे अपनी ज़ात और अपने भाई के अलावा किसी पर इखतियार नहीं, तो आप हमें हुक्म दें हम उसे बजा लायेंगं। जिस पर हज़रत ने फ़रमाया कि जो मैं चाहता हूं वह तुम दो आदमियों से कहां सर अंजाम पा सकता है।234. बयान किया गया है कि हारिस इबने हूत हज़रत की खिदमत (सेवा) में हाज़िर हुआ और कहा कि, क्या आप के ख्याल में मुझे इस बात का गुमान भी हो सकता है कि असहाबे जमल गुमराह थे।हज़रत ने फ़रमाया कि ऐ हारिस तुम ने नीचे की तरफ़ देखा ऊपर की तरफ़ निगाह नहीं डाली, जिस के नतीजे में तुम हैरान व सरगर्दां हो गए हो। तुम हक़ ही को नहीं जानते कि हक़ वालों को जानो, और बातिल ही को नहीं पहचानते कि बातिल की राह पर चलने वालों को पहचानों।हारिस ने कहा कि, मैं सअद इबने मालिक और अब्दुल्लाह इबने उमर के साथ गोशा गुज़ीं (एकानेत वास, भूमिगत) हो जाऊंगा।हज़रत ने फ़रमाया कि, सअद और अब्दुल्लाह इबने उमर ने हक़ की मदद की, और न बातिल की नुसरत से हाथ उठाया।सअद इबने मालिक (सअद बिन अबी विकास) और अब्दुल्लाह इबने उमर उन लोगों में से थे जो अमीरुल मैमिनीन (अ0 स0) की रिफ़ाक़त व हम नवाई (साथ व सहमति) से मुंह मोड़े हुए थे। चुनांचे सअद इबने अबी विकास तो हज़रत उसमान के कत्ल के बाद एक सहरा (जंगल) की तरफ़ मुंतकिल (स्थानानतरित) हो गए और वहीं ज़िन्दगी गुज़ार दी और हज़रत की बैअत न करना थी न की और अब्दुल्लाह इबने उमर ने अगरचे बैअत कर ली थी मगर जंगों में हज़रत का साथ देने से इंकार कर दिया था, और उज्र यह पेश किया था कि मैं इबादत के लिए गोशा नशीनी इख़तियार (एकान्त वास धारण) कर चुका हूं, अब हर्ब व पैकार से कोई सरोकार रखना नहीं चाहता।235. बादशाह का नदीम व मुसाहिब (मित्र व सभासद) ऐसा है जैसे शेर पर सवार होने वाला कि उस के मर्तबे (पद) पर रश्क (ईर्ष्या) किया जाता है लेकिन वह अपने मौक़िफ़ (स्थान) से खूब वाक़िफ़ (अवगत) है।मक़सद यह है कि जिसे बारगाहे सुल्तानी (राजा की सभा) में तक़र्रुब हासिल (निकटता प्राप्त) होता है लोग उस के जाहो मंसब (पद व प्रतिष्ठा) और इज़्ज़त व इक़बाल (मान मर्यादा) को रश्क (ईर्ष्या) की निगाहों से देखते हैं। मगर खुद उसे हर वक्त यह धड़का लगा रहता है कि कहीं बादशाह (राजा) की नज़रें उस से फिर न जायें और वह ज़िल्लत व रुसवाई (अपमान व निन्दा) या मौत व तबाही के गढ़े में न जा पड़े। जैसे शेर का सवार कि लोग उस से मरऊब (आतंकित) होते हैं, और वह इस ख़तरे में घिरा होता है कि कहीं यह शेर उसे फ़ाड़ न खाए या किसी मोहलिक (घातक) गढ़े में न जा गिराए।236. दूसरों के पसमांदगाना (अवशिष्टों) से भलाई करो ताकि तुम्हारे पसमांदगाना पर भी नज़रे शफ़क़त (कृपा दृष्टि) पड़े।237. जब हुक्मा (चिकित्सक गण) का कलाम (वाणी) सहीह हो, तो वह दवा है और ग़लत हो तो सरासर मरज़ (रोग) है।238. हज़रत से एक शख्स (ब्यक्ति) ने सवाल किया कि ईमान की तअरीफ़ (परिभाषा) क्या है। आप ने फ़रमाया कि, कल मेरे पास आना ताकि मैं तुम्हें उस मौक़े पर बताऊं कि दूसरे लोग भी सुन सकें कि अगर तुम भूल जाओ तो दूसरे याद रखें, इस लिये कि कलाम (वाणी) भड़के हुए शिकार की मानिन्द (समान) होता है कि एक ही गिरफ्त (पकड) में आ जाता है और दूसरों के हाथ से निकल जाता है।239. ऐ फ़रज़न्दे आदम (आदम के पुत्र)। उस दिन की फ़िक्र का बार (चिन्ता का भार) जो अभी आया नहीं, आज के अपने दिन पर न डाल कि जो आ चुका है इस लिये कि अगर अक दिन भी तेरी उम्र का बाकी होगा तो अल्लाह तेरा रिज़्क (जीविका) तुझ तक पहुंचायेगा।240. अपने दोस्त (मित्र) से एक हद (सीमा) तक महब्बत (प्रेम) करो क्यों कि शायद किसी दिन वह तुम्हारा दुश्मन हो जाए, और दुश्मन की दुश्मनी भी एक हद (सीमा) में रखो। हो सकता है कि किसी दिन वह तुम्हारा दोस्त बन जाए।241. दुनिया में काम करने वाले दो किस्म (प्रकार) के हैं। एक वह जो दुनिया के लिए सर गर्मे अमल (यलनवान) रहता है और उसे दुनिया ने आख़िरत (परलोक) से रोक रखा है, वह अपने पसमांदगान (अवशि्ष्टों) के लिए फ़क्रो फ़ाका (दरिद्रता एवं उपवास) का ख़ौफ़ (भय) करता है मगर अपनी तंगदस्ती (निर्धनता) से मुत्मइन (संतुष्ट) है, तो वह दूसरों के फायदे में ही पूरी इम्र बसर कर देता है। और एक वह जो दुनिया में रह कर उस के बाद की मंज़िल के लिए अमल (कर्म) करता है तो उसे तगो दौ (भाग दौड) किये बग़ैर दुनिया भी हासिल हो जाती है और इस तरह वह दोनों हिस्सों को समेट लेता है और दोनों घरों का मालिक बन जाता है। वह अल्लाह के नज़दीक़ बावक़ार (प्रतिष्ठित) होता है और अल्लाह से कोई हाजत नहीं मांगता जो अल्लाह पूरी न करे।242. बयान किया गया है कि उमर इबने ख़त्ताब के सामने खानए क़ाअबा के ज़ेवरात (आभूषण) और उन की कसरत (बाहुल्य) का ज़िक्र हुआ तो कुछ लोगों ने उन से कहा कि अगर आप उन ज़ेवरात (आभषणों) को ले लें और मुसलमानों के लशकर (सेना) पर सर्फ़ (ब्यय) कर के उन की रवानगी का सामान करें तो ज़ियादा बाइसे अज्र (अधिक पुण्य का कारण) होगा, ख़ानए क़ाअबा को इन ज़ेवरात की क्या ज़रुरत है। चुनांचे उमर ने उस का इरादा कर लिया और अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) से इस के बारे में मसअला पूछा। आप ने फ़रमायाः-----जब कुरआने करीम नबीए अक़रम सल्लाल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम पर नाज़िल हुआ तो उस वक्त चार किस्म के अमवाल थे, एक मुसलमानों का ज़ाती (ब्यक्तिगत) माल था, उसे आप ने उन के वारिसों में तक़्साम (विभाजित, विपरीत) करने का हुक्म (आदेश) दिया। दूसरा माल ग़नीमत था, उसे उस के मुस्तहक्क़ीन (पात्रों) पर तक़सीम (वितरम) किया। तीसरा माले खूमुस था, उस माल के अल्लाह तआला ने ख़ास मसारिफ़ (विशेष मद) मुक़र्रर (निर्धारित) कर दिये। चौथे ज़क़ात व सदक़ात थे, उन्हें अल्लाह ने वहां सर्फ़ (ब्यय) करने का हुक्म दिया जो उन का मसरफ़ (उपयोग) है। यह ख़ानए कअबा के ज़ेवरात उस ज़माने में भी मौजूद थे लेकिन अल्लाह ने उन को उन के हाल पर रहने दिया। और ऐसा भूले से तो नहीं हुआ, और न उन का वजूद (अस्तित्व) उस पर पोशीदा (गुप्त) था। लिहाज़ा आप भी उन्हें वहीं रहने दीजिए जहां अल्लाह और उस के रसूल (स0) ने उन्हें रखा है। यह सुन कर उमर ने कहा कि अगर आप न होते तो हम रुसवा हो जाते, और ज़ेवरात को उन की हालत पर रहने दिया।243. रिवायत की गई है कि हज़रत के सामने दो आदमियों को पेश किया गया जिन्हों ने बैतुलमाल (सरकारी खज़ाने) में चोरी की थी। एक तो उन में गुलाम (दास) और खुद बैतुलमाल की मिल्कियत (स्वामित्व) था, और दूसरा लोगों में से किसी की मिल्कियत में था। आप ने फ़रमाया किः----यह ग़ुलाम जो बैतुलमाल का है उस पर हद (दण्ड) जारी नहीं हो सकती क्यों कि अल्लाह का माल अल्लाह के माल ही ने खाया है, लेकिन दुसरे पर हद जारी होगी। चुनांचे उसका हाथ काट दिया।244. अगर इन फिसलनों से बच कर पैर जम गए तो मैं बहुत सी चीज़ों में तब्दीली (परिवर्तन) कर दूंगा।इस से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पैगमबरे इसलाम(स0) के बाद दीन (धर्म) में तग़ैयुरात रुनुमा (परिवर्तन) प्रकट) होना शुरुउ हो गए और कुछ अफ़राद (ब्यक्तियों) ने क़ियास व राय (अनुमान व विचार) से काम ले कर अहकामे शरीअत में तरमीम व तंसीख (रद्दो बदल) की बुनियाद (आधार शिला) डाल दी। हालां कि हुक्मे शरई में तबदीली (परिवर्तन) का किसी को हक़ नहीं पहुंचता, कि वह कुरआन और सुत्रत के वाज़ेह अहकाम (स्पष्ट आदेशों) को ठुक़रा कर क़ियासी अहकाम (काल्पनिक आदेशों) का निफ़ाज़ (क्रियांवन) करे। चुनांचे कुरआने करीम में तलाक़ की यह वाजेह सूरत (स्पष्ट रुप) से बयान की गई है कि, अत्तालक़ु मर्रतान, तलाक़े रजई (कि जिस में बग़ैर मुहल्लिल के ऱुजूउ हो सकती है) दो मर्तबा है, मगर हज़रत उमर ने बअज़ मसालेह (कतिपय हितों) के पेशे नज़र (दृष्टिगत) एक ही नशिस्त (बैठक) में तीन तलाक़ों के वाके़ होने का हुक्म दे दिया। इसी तरह मीरास में ऊल का तरीक़ा राइज (प्रचलित) किया और नमाज़े जनाज़ा में चार तक़बीरों को रिवाज दिया। यूं ही हज़रते उसमान ने नमाज़े जुमअ में एक अज़ान बढ़ा दी और कस्त्र के मौक़े पर पूरी नमाज़ के पढ़ने का हुक्म दिया और नमाज़े ईद में ख़ुतबे को नमाज़ पर मुकद्दम (पहले) कर दिया और इसी तरह के बेशुमार (असंख्य) अहकाम वअज़ कर लिये गए जिस से सहीह अहकाम भी ग़लत अहकाम के साथ मख़लूत (मिश्रित) हो कर बे एतिमाद (अविश्वसनीय) बन गए।अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) जो शरीअत के सब से ज़ियादा वाक़िफ़कार (अधिक जानकार) थे वह इन अहकाम के खिलाफ़ अहतियाज (असंतोष ब्यक्त) करते और सहाबा के खिलाफ़ अपनी राय रखते थे। चुनांचे इबने अबिल हदीद ने तहरीर किया है किः----हमारे लिये इस में शक (संदेह) की ग़ुंजाअश नहीं कि अमीरुल मोमिनीन शरई अहकाम व क़जाया (निर्णय) में सहाबा के खिलाफ़ राय रखते थे।जब हज़रत ज़ाहिरी ख़िलाफ़त पर मुतमक्किन (आसत्र) हुए तो अभी आप के क़दम पूरी तरह जमने न पाए थे कि चारों तरफ़ से फ़ितने (उपद्रव) उठ खड़े हुए और उन उलझनों से आखिरी वक्त तक छुटकारा हासिल न कर सके, जिस की वजह से तबदील शुदा अहकाम में पूरी तरह तरमाम न हो सकी और मर्कज़ से दूर इलाकों में बहुत से ग़लत सलत अहकाम रिवाज पा गए। अलबत्ता वह तबका (वर्ग) जो आप से वाबस्ता (सम्बंध) था वह आप से अहकामे शरीअत को दर्याफ्त करता था और उन्हें महफ़ूज़ (सुरक्षित) रखता था, जिस की वजह से सहीह अहकाम नाबूद और ग़लत मसाइल हमागीर न हो सके।245. पूरे यक़ीन (पूर्ण विश्वास) के साथ इस अम्र (बात) को जाने रहो कि अल्लाह सुब्हानहू ने किसी बन्दे के लिये चाहे उस की तदबीरों (उपाय) बहुत ज़बरदस्त (बलिष्ट), उस की जुस्तुजू (जिज्ञासा) शदीद (तीब्र) और उस की तरक़ीबें (विधियां) ताक़तवर हों, उस से ज़ियादा रिज़्क (जीविका) क़रार नहीं दिया, जितना कि तक़दीरे इलाही (भाग्य) में उस के लिये मुक़र्रर (निर्धारित) हो चुका है। और किसी बन्दे के लिये उस की क़मज़ोरी व बेचारगी की वजह से लौहे महफ़ूज़ (सुरक्षित भाग्य पट्टिका) में उस के मुक़र्ररह रिज़्क (निर्धारित जीविका) तक पहुंचने में रुकावट नहीं होता। इस हक़ीक़त (यथार्थ) को समझने वाला और उस पर इमल करने वाला सूद व मुनाफ़िअत (लाभ) की राहतों में सब से बढ़ चढ़ कर है, और उसे नज़र अंदाज़ करने और उस में शक व शुब्हे करने वाला सब लोगों से ज़ियादा ज़ियांकारी (हानि) में मुब्तला (ग्रस्त) है। बहुत से वह जिन्हें नेमतें (वर्दान) मिली हैं, नेमतों (वर्दानों) की बदौलत कम कम अज़ाब (प्रताणना) के नज़दीक (निकट) किये जा रहे हैं, और बहुत सों के साथ फ़क़्रो फ़ाक़ा (दरिद्रता व उपवास) के पर्दे में अल्लाह का लुत्फ़ो क़रम (दया एवे कृपा)शामिल होते हैं। लिहाज़ा ऐ सुनने वाले। शुक्र ज़ियादा और जल्द बाज़ी कम कर, और जो तेरी रोज़ी की हद (जीविका की सीमा) है उस पर ठहरा रह।246. अपने इल्म को जहल (ज्ञान को अज्ञान) और अपने यक़ीन को शक (विश्वास को शंका) न बनाओ। जब जान लिया तो अमल करो, और जब यक़ीन पैदा हो गया तो आगे बढ़ो।इल्म व यक़ीन (ज्ञान व विश्वास) का तक़ाज़ा यह है कि उस के मुताबिक़ (अनुसार) अमल किया जाए और अगर उस के मुताबिक अमल जहूर में (प्रकाश) में न आए तो उसे इल्म व यक़ीन (ज्ञान एवं विश्वास) से तअबीर (विवरण) नहीं किया जा सकता। चुनांचे अगर कोई शख्स (ब्यक्ति) कहे कि मुझे यक़ीन (विश्वास) है कि फ़लां (अमुक) रास्ते में ख़तरा है। और वह बे ख़तर रास्ते को छोड़ कर पुर खतर रास्ते में राह पैमाई (यात्रा) करे तो क़ौन कह सकता है कि वह इस राह के खतरों पर यक़ीन रख़ता है, जब कि इस का नतीजा यह होना चाहिए कि वह उस रास्ते पर चलने से एतिराज़ (परहेज़) करता। इसी तरह जो शख्स (ब्यक्ति) हश्र व नश्र और अज़ाब व सवाब पर यक़ीन रखता हो वह दुनिया की ग़फ़लतों से मग़लूब हो कर आख़िरत (परलोक) को नज़र अन्दाज़ नहीं कर सकता और न अज़ाब व इक़ाब के ख़ौफ़ (भय) से अमल में कोताही का मुर्तकिब हो सकता है।247. तमअ (लोभ) घाट पर उतारती है मगर सेराब (त्रप्ति) किये बग़ैर पलटा देती है, ज़िम्मेदारी का बोझ उठाती है मगर उसे पूरा नहीं करती। और अक्सर ऐसा होता है कि पानी पीने वाले को पानी पीने से पहले ही उच्छू हो जाता है, और जितनी किसी मरग़ीब व पसन्दीदा चीज़ की क़दरो मंज़िलत ज़ियादा होती है उतना ही उसे खो देने का रंज ज़ियादा होता है। आर्ज़ुएं दीदए बसीरत को अंधा कर देती हैं और जो नसीब में होता है पहुंचने की कोशिश किये बग़ैर मिल जाता है।248. ऐ अल्लाह। मैं तुझ से पनाह (शरण) मांगता हूं इस से कि मेरा ज़ाहिर (प्रत्यक्ष) लोगों की चशमे ज़ाहिरबीं (प्रत्यक्षदर्शी दृष्टि) में बेहतर हो, और जो अपने बातिल (अन्तःकरण) में छिपाए हुए हूं वह तेरी नज़रों में बुरा हो। इस हाल (दशा) में कि लोगों के दिखावे के लिये अपने नफ्स (आत्मा) की उन चीज़ों से निगहदाश्त ( संरक्षण) करूं कि जिन सब पर तू आगाह (अवगत) है। इस तरह लोगों के सामने तो ज़ाहिर (प्रत्यक्ष) के अच्छा होने की नुमाइश (प्रदर्शन) करूं, और तेरे सामने अपनी बद अअमालियों (कुकर्मों) को पेश करता रहूं, जिस के नतीजे में तेरे बन्दों से तक़र्रुब (निकटता) हासिल करूं, और तेरी खुसनूदियों से दूर ही होता चला जाऊं।249. किसी मौक़े (अवसर) पर क़सम खाते हुए इर्शाद फरमाया, उस ज़ात की क़सम। जिस की बदौलत हम ने ऐसी शबे तार की बाक़ी मांदा हिस्से (अंधेरी रात के शेष भाग) को बसर (ब्यतीत) कर दिया जिस के छटते ही रोज़े दुरुख़शां (प्रकाशमान दिन) ज़ाहिर (प्रकट) होगा, ऐसा और ऐसा नहीं हुआ।250. वह थोड़ा अमल (कर्म) जो पाबन्दी से बजा लाया जाता है ज़ियादा फ़ायदे मन्द (अधिक लाभकारी) है, उस कसीर अमल (अधिक कर्म) से कि जिस से दिल उकता जाए।251. जब मुस्तहबात (ऐसे कर्म जिन के करने में सवाब है मगर न करने में कोई गुनाह नहीं) फ़राइज़ (वाजिबात के पालन) में सद्दे राह (अवरुद्घ) हों तो उन्हें छोड़ दो।252. जो सफ़र (यात्रा) की दूरी के पेशे नज़र (दृष्टिगत) रखता है वह कमर बस्ता रहता है।253. आंखों का देखना हकीकत (वास्तव) में देखना नहीं, क्यों कि आंखे कभी अपने अशखास (ब्यक्तियों) से ग़लत बयानी भी कर जाती हैं। मगर अक़्ल (बुद्घि) उस शख्स (ब्यक्ति) को, जो उस से नसीहत चाहे, कभी फ़रेब (धोका) नहीं देती।254. तुम्हारे और पन्दो नसीहत (उपदेश एवं प्रवचन) के दरमियान (बीच) ग़फ़लत (अचेतना) का एक बड़ा पर्दा हाइल है।